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____सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् ।
२०५ इस लोक तथा परलोकमें भी विघ्नकारक, बड़ी २ नदियोंके प्रवाहके वेगसदृश अति उग्र (तेज वा भयङ्कर ), अकुशल ( मूर्ख ) तथा शास्त्रकुशल पण्डितोंके भी, कर्मोंके निर्गम (आगमन )के द्वारभूत आस्रवरूप इंद्रियोंको, आत्माको कल्याणमार्गसे खण्डित करनेवाले चिन्तन करना चाहिये । अर्थात् “कर्मोंके आत्मामें अर्थात् प्रदेशमें आगमनके निमित्तभूत इंद्रियां निन्दनीय पापकर्मों में आत्माको फँसाकर उसे कल्याणमार्गसे पृथक् ( अलग) करदेती हैं ऐसा चिन्तन करना चाहिये" जैसे-स्पर्शन इद्रियमें आसक्तचित्त (फँसाहुआ) अनेक विद्या तथा बलसम्पन्न ( सहित ) और अष्टाङ्गके महानियमोंके पारङ्गत होनेपर भी सत्यकि गार्ग्य मरणको प्राप्त हुआ तथा नानाप्रकारके अत्यन्त सघन वृक्ष, तृण, जल आदिके द्वारा महाक्लेशकारक गणोंसे सम्पन्न ( सहित ) वनोंमें विचरनेवाले मदोन्मत्त, अति उद्धत तथा बलवान् हाथी भी हाथियोंके बन्धनमें हेतुभूत दुष्ट हथिनियों ( कृत्रिम वा यथार्थ )में स्पर्शन इन्द्रिय ( उपस्थ वा शिष्ण )से आसक्त होनेसे ग्रहणदशाको प्राप्त होते हैं । और इससे ( पकड़में आजानेके पीछे ) बन्धन, मरण, निग्रह, वाहन (सवारीको वहन करना वा लेजाना) तथा अङ्कुशोंके द्वारा, गण्डस्थलोंमें छेदन भेदन आदि नानाप्रकारके प्रहारों (चोटों)से उत्पन्न अति कठोर दुःखोंको सहन करते हैं। और सदा अपनी इच्छाके अनुसार अपने झुण्डके बनमें विचरने (भ्रमण करने )के सुख सहित वनवासको स्मरण किया करते हैं । और इसी रीति ( स्पर्शन इन्द्रियके आनन्दमें फसने )से मैथुनसुखके कारण गर्भ धारण करनेवाली अश्वतरी (खच्चरी )प्रसूति (बालकजनन ) समयमें प्रसव न कर सकती हुई अतिभयङ्कर महादुःखसे पीडित व अवश होकर मरण अवस्थाको प्राप्त होती है । इसी प्रकार सभी जो स्पर्शन इन्द्रिय ( त्वगिन्द्रिय )के सुखमें आसक्त हो ( फँस )जाते हैं वे इसलोक तथा परलोकमें भी पतनको ही प्राप्त होते हैं । तथा इसी (पूर्वकथित ) रीतिसे जो प्राणी जिह्वा इन्द्रियके सुखमें आसक्त हो (फँस ) जाते हैं वे भी नदीमध्यस्थित मरे हुए हाथीके शरीरपर स्थित (विद्यमान) जलप्रवाहके वेगसे वाहित (बहे हुए) काक (कौवे )के समान, हेमन्तऋतुमें(जाड़े वा शीत कालमें ) घृतके कुम्भ (घट वा घड़े )में प्रविष्ट (घुसे हुए ) घृतमें निमग्न (फँसे ) मूषक ( चूहे )के तुल्य, गोष्ठ (गौओंके निवासस्थान )में आसक्त हृदनिवासी कच्छप ( कछुये ) के सदृश, मांसके खण्ड (टुकड़े )के लोभी बाज पक्षीके समान, तथा कटिये बा बंशीमें लगे हए मांस (वा पिष्ट आटा आदि )के लोभी मत्स्य (मछली) तुल्य मरणकोही प्राप्त होते हैं। और घाण इन्द्रियमें आसक्त (फँसे हुए) जन भी औषधके गन्धके लोभी सर्प ( साँप ) के समान, मांसके गन्धके अनुगामी (मांसके गन्धको निश्चय करके उसके अनुसार चलनेवाले मूषक ('चूहे )के तुल्य मृत्युकोही प्राप्त होते हैं । और इसी (प्रथमकथित ) रीतिके अनुसार नेत्र (आंख ) इन्द्रियके आनन्दमें निमग्न (फँसे हुए) स्त्रीके Jain Education International
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