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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् दर्शन प्रसङ्गसे अर्जुन चोरके समान, तथा दीपके प्रकाशके लोभी पतङ्गके तुल्य पतन ( मरण) कोही प्राप्त होते हैं । इस प्रकारका चिन्तन (विचार) करना चाहिये और इसी प्रकार कर्ण (श्रोत्र वा कान) इन्द्रियके विषयमें आसक्त तित्तिर ( तीतर वा तीतल), कपोत (कबूतर ), कपिल, और गीत तथा वाद्यकी ध्वनिके लोभी मृगके समान विनिपात ( मरण)को प्राप्त होते हैं, ऐसा विचार करना चाहिये । इसप्रकार चिन्तन करता हुआ यह प्राणी आस्रवके निरोधके लिये समर्थ होता है। इसप्रकार यह सप्तमी आस्रवानुप्रेक्षा समाप्त हुई ॥ ७॥ ___ संवरांश्च महाव्रतादिगुप्त्यादिपरिपालनाद्गुणतश्चिन्तयेत् । सर्वे ह्येते यथोक्तास्रवदोषाः संवृतात्मनो न भवन्तीति चिन्तयेत् । एवं ह्यस्य चिन्तयतो मतिः संवरायैव घटत इति संवरानुप्रेक्षा ॥८॥
तथा गुप्ति (मनो, वाक्, काय )आदिके परिपालन रूप गुणोंसे पञ्च महाव्रत स्वरूप संवरोंका इस जीवको विचार करना चाहिये । क्योंकि जिसका आत्मा संवृत है अर्थात् जो संवरगुणसहित है उस जीवको आस्रवके जो सब दोष कहे गये हैं वे सभी नहीं होते ऐसा चिन्तन करना चाहिये । इस रीतिसे चिन्तन करनेवालेकी बुद्धि संवरके लिये समर्थ होती है, यह अष्टमी संवराऽनुप्रेक्षा व्याख्यात हुई ॥ ८॥
निर्जरा वेदना विपाक इत्यनान्तरम् । स द्विविधोऽबुद्धिपूर्वः कुशलमूलश्च । तत्र नरकादिषु कर्मफलविपाको योऽबुद्धिपूर्वकस्तमुद्यतोऽनुचिन्तयेदकुशलानुबन्ध इति । तपःपरीषहजयकृतः कुशलमूलः । तं गुणतोऽनुचिन्तयेत् । शुभानुबन्धो निरनुबन्धो वेति । एवमनुचिन्तयन्कर्मनिर्जरणायैव घटत इति निर्जरानुप्रेक्षा ॥९॥
निर्जरा (एकदेश कर्मोंका क्षय वा सामान्यरूपसे कर्मक्षय ), बेदना (कर्मफलोंका अनुभव ) तथा विपाक (कर्मोंका फलयोग ) ये सब एक अर्थवाचक शब्द हैं । वह निर्जरा अथवा विपाक दो प्रकार का है, एक तो अबुद्धि (अज्ञान ) पूर्वक, और दूसरा कुशल (शुभाचरण) मूलक । इनमेंसे नरक आदिमें कर्मोंके फलोंका जो विपाक ( कर्मफलोंका अनुभव वा भोग) है उस सबको निन्दनीय समझै और यह चिन्तन करै कि यह सब अकुशल अर्थात् , दुष्ट कर्मोंकाही अनुबन्ध ( सम्बध वा फल ) है । और द्वादश तप तथा द्वाविंशति ( बाईस ) परीषहजयसे जो किया है वह कुशलमूलक अर्थात् शुभाचरणसे उत्पन्न हुआ है । उसके गुणके अनुसार चिन्तन करै; कि यह शुभअनुबन्ध (शुभचारित्रोंसे सम्बन्ध रखनेवाला) है अथवा अनुबन्धरहित है। इस प्रकारसे चिन्तन करता हुआ प्राणी कर्मोंके निर्जरण अर्थात् नाश करनेहीमें समर्थ होता है; इस रीतिसे यह नवम निर्जराऽनुप्रेक्षा व्याख्यात हुई ॥ ९॥
पञ्चास्तिकायात्मकं विविधपरिणाममुत्पत्तिस्थित्यन्यतानुग्रहप्रलययुक्तं लोकं चित्रस्वभाव. मनुचिन्तयेत् । एवं ह्यस्य चिन्तयतस्तत्त्वज्ञानविशुद्धिर्भवतीति लोकानुप्रेक्षा ॥ १०॥
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