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________________ सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । २४७ तथा ऊर्ध्वभाग में क्रमसे होती हैं, ऐसेही जीवोंकी स्वभावसिद्ध गति ऊर्ध्व देशमेंही होती है ॥ १४ ॥ और पूर्वकथितके विपरीत ( विरुद्ध ) जो इन ( जीव पुद्गल आदि ) की होती है यह कर्मसे, प्रतिघातसे तथा प्रयोगसे इष्ट है ॥ १५ ॥ जीवोंकी कर्मसे अधोभाग, तिर्य्यग्भाग तथा ऊर्ध्व भागमें भी गति होती है किन्तु क्षीणकर्म जीवोंकी अर्थात् जिनके कर्म सर्वथा क्षीण होगये हैं ऐसे जीवोंकी तो स्वाभाविक गति ऊर्ध्व भाग में ही होती है, क्योंकि जीव. स्वभावसे ऊर्ध्वगति धर्मवाला है ॥ १६ ॥ जैसे द्रव्य क्रियाकी उत्पत्ति, आरम्भ, तथा नाश साथ ही होते हैं, ऐसेही सिद्धकी गति, मोक्ष तथा संसारक्षय साथ ही होते हैं ॥ १७ ॥ जैसे प्रकाशकी उत्पत्ति और अन्धकारका नाश एक कालमें ही होते हैं, ऐसेही निर्वाण ( मोक्ष ) की उत्पत्ति तथा कर्मका नाश एक ही कालमें होते हैं ॥ १८ ॥ सूक्ष्म, मनोज्ञ ( अतिरमणीय), सुगन्धपूर्ण, पवित्र, तथा परमप्रकाशमय, प्राग्भारा नाम पृथिवी इस लोकके शिरपर ( लोकाकाशके अन्तमें ऊपर ) व्यवस्थित (वर्तमान) है ॥ १९ ॥ मनुष्यलोकके समान उसका व्यास है, और यह पृथिवी श्वेत छत्रके सदृश अति शुभ ( परमशुद्ध श्वेतवर्ण) है, उसी पृथिवीके ऊपर लोकान्तमें सिद्धगति स्थित हैं ॥ २० ॥ तादात्म्यसम्बन्ध अर्थात् अभेद सम्बन्ध केवल ज्ञान और दर्शनसे उपयुक्त हैं, तात्पर्य यह कि केवल ज्ञान तथा दर्शनरूप उपयोगमय हैं, तथा सम्यक्त्व सिद्धता अवस्था सहित हैं, और कारणके अभाव से निष्क्रिय अर्थात् क्रियारहित हैं ॥ २१ ॥ यदि कदाचित् ऐसी बुद्धि हो अर्थात् उस सिद्धस्थान वा सिद्धशिलाके ऊपर भी ऊर्ध्व गति स्वभावसे सिद्ध जीवोंकी गति क्यों नहीं होती ? यदि ऐसी शङ्का हो तो, इसका उत्तर यह है कि लोकान्तके ऊपर धर्मास्तिकाय नहीं है, अतः ऊर्ध्वगति नहीं होती, और धर्मास्तिकाय गतिमें परम हेतु है ॥ २२ ॥ संसारके संपूर्ण विषयोंसे पर नाशरहित तथा अव्याबाध ( सब प्रकारकी बाधाओंसे रहित ) नित्य परम सुख मुक्त जीवोंको होता है, ऐसा परमर्षि महात्माओंने कहा है || २३ ॥ पूर्व प्रसङ्ग रहा, शरीरशून्य तथा अष्ट कर्मों ( मोहनीय आदि ) के नाशसहित जीवको वह परम सुख (मोक्षसुख ) कैसे होता है, यदि ऐसी शङ्का हो तो मुझसे सुनो, अर्थात् इस शङ्काका उत्तर सुनो ॥ २४ ॥ इस लोकमें चार पदार्थोंमें सुख शब्दका प्रयोग ( व्यवहार किया जाता है) जैसे विषयमें, वेदना ( पीडा ) के अभाव में, विपाक ( परिणाम ) में, तथा मोक्षमें ॥ २५ ॥ अनि सुख ( सुखदायक ) है, तथा वायु ( पवन सुख अर्थात् सुखकारक है ) इत्यादि रूपसे विषयोंमें सुख शब्दका प्रयोग किया जाता है, ऐसेही दुःखोंके अभावमें भी मैं सुखी स्थित हूं ऐसा पुरुष मानता है ॥ २६ ॥ तथा पुण्यकर्मोंके विपाक (फलभोगके समय ) में इन्द्रिय तथा पदार्थसे उत्पन्न सुख शब्दसे सबको इष्ट कहा जाता है, और कर्मों शोंसे विमुक्त होनेपर मोक्षमें सर्वोत्तम सुख होता है ॥ २७ ॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004021
Book TitleSabhashya Tattvarthadhigam Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorThakurprasad Sharma
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages276
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size6 MB
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