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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम्
इस मोक्ष सुखको कोई तो उत्तम सुषुप्ति ( गाढ निद्रा ) के तुल्य परमशान्तिरूप चाहते ( मानते ) हैं, परन्तु मोक्षसुखको निद्रासदृश मानना अयोग्य है, क्योंकि सुखके सम्बन्धसे वहां पर क्रियावत्ता है ॥ २८ ॥ तथा इसकी अयोग्यता यों भी है कि इस प्रकारके सुखका सम्भव श्रम, खेद, मद, व्याधि तथा मदन (मैथुन ) से भी है, और दर्शनको नाश करनेवाले कर्मके विपाक (मोहकी उत्पत्ति ) से भी पूर्वोक्त असङ्गति सिद्ध होती है॥ २९ ॥ इस सम्पूर्ण संसारभरमें ऐसा कोई पदार्थ नहीं है जिसके साथ उसकी उपमा दें, इस हेतुसे वह मोक्षसुख निरुपम अर्थात् उपमाशून्य ( सर्वोत्तम ) है ॥ ३० ॥ अनुमान तथा उपमानका प्रामाण्य लिङ्गप्रसिद्धि ( हेतुप्रसिद्धि ) से होता है; सो इनकी विषयता (अनुमान आदि विषयाभाव) से जो अत्यन्त अप्रसिद्ध है इसी लिये वह अनुपम कहा गया है ॥ ३१ ॥ और प्रत्यक्षभाव ( प्रत्यक्ष ज्ञानकी विषय ) ता प्राप्त वह अर्हत् जिनभगवानोको है, इस लिये उनसे कहा हुआ वह प्राज्ञों से ( मोक्षसुख ) ग्रहण किया जाता ( जानाजाता ) है, न कि छद्मस्थोंकी परीक्षासे उसका बोध होता है ॥ ३२ ॥
यस्त्विदानीं सम्यग्दर्शनज्ञानचरणसंपन्नो भिक्षुर्मोक्षाय घटमानः कालसंहननायुर्दोषादल्पशक्तिः कर्मणां चातिगुरुत्वादकृतार्थ एवोपरमति स सौधर्मादीनां सर्वार्थसिद्धान्तानां कल्पविमानविशेषाणामन्यतमे देवतयोपपद्यते । तत्र सुकृतकर्मफलमनुभूय स्थितिक्षयात्प्रच्युतो देशजातिकुलशीलविद्याविनयविभव विषयविस्तरविभूतियुक्तेषु मनुष्येषु प्रत्यायातिमवाप्य पुनः सम्यग्दर्शनादिविशुद्धबोधिमवाप्नोति । अनेन सुखपरम्परायुक्तेन कुशलाभ्यासानुबन्धक्रमेण परं त्रिर्जनित्वा सिध्यतीति ॥
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और जो सम्यग्दर्शन, ज्ञान, तथा चरण ( चारित्र ) से युक्त साधु मोक्षके अर्थ चेष्टा करता है, किन्तु काल, संहनन तथा आयुः के दोषसे अल्पशक्ति (न्यून सामर्थ्य ) होनेसे और कर्मोंकी अति गुरुताके कारण विना कृतार्थ हुए अर्थात् मोक्षप्राप्तिरूप कृतार्थताको न प्राप्त होकर उपराम भावको प्राप्त होता है, वह सौधर्म आदिसे लेकर सर्वार्थसिद्धपर्यन्त जो विमान विशेष हैं, उनमेंसे किसी एक में देवता होकर उत्पन्न होता है । और वहांपर सुकृत कर्मोंके अर्थात् पुण्यकर्मोंके फलको भोगकर, पुनः स्थिति काल ( जिस विमान वा देवयोनिविशेषमें जितना स्थितिका काल नियत है, उस नियत काल ) के क्षय होनेके पश्चात् वहांसे प्रच्युत होकर ( गिरनेपर ) देश ( उत्तम देश ), काल ( उत्तम काल ), जाति (सद्जाति), शील, विद्या, विनय, विभव ( अनेक प्रकारके ऐश्वर्य्य), विषय ( अनेक प्रकार के उत्तम विषयों के सुख ) तथा विस्तार ( विस्तार वा विशालता ) और विभूतियोंसे सहित मनुष्योंमें जन्म पाकर पुनः सम्यग्दर्शन आदि विशुद्ध बोधि, (सम्यग्दर्शन ज्ञानचारित्र) को प्राप्त होता है । इस सुखपरम्परा ( सुखश्रेणि) से युक्त कुशलअभ्यासके अनुबन्धक्रमसे तीन बार इस संसार में जन्म लेकर पुनः सिद्धतादशा (मोक्षसिद्धि ) को प्राप्त होता है ।
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