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________________ ८८ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् रकुरु भोगभूमियां हैं, उन्हें छोड़ करके । अर्थात् ये दोनों कर्मभूमि नहीं हैं । संसाररूपी अति भयंकर दुर्गके अन्तको प्राप्त करनेवाला सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान तथा सम्यक् चारित्र स्वरूप जो मोक्षमार्ग है, उसके जाननेवाले, करनेवाले तथा उपदेशदाता भगवान् परमर्षि तीर्थकर इन्हीं कर्मभूमियोंमें उत्पन्न होते हैं। और इन्हीं कर्मभूमियोंमें उत्पन्न हुए जीव सिद्धि अर्थात् मोक्षसिद्धिको प्राप्त होते हैं, दूसरी भूमियोंसे नहीं । अतएव कर्मभूमि, निर्वाणकेलिये जो कर्म हैं, उनकी सिद्धिकी भूमि हैं । और इनसे शेष जो अन्तरद्वीप सहित बीस वंश अर्थात् क्षेत्र हैं, वे अकर्मभूमि हैं । और देवकुरु तथा उत्तरकुरु कर्मभूमियोंके अभ्यन्तर प्रविष्ट होने पर भी अकर्मभूमि हैं ॥ १६ ॥ - नृस्थिती परापरे त्रिपल्योपमान्तर्मुहूर्ते ॥ १७ ॥ भाष्यम्-नरो नरा मनुष्या मानुषा इत्यनर्थान्तरम् । मनुष्याणां परा स्थितिस्त्रीणिपल्योपमान्यपरान्तर्मुहूर्तेति ॥ सूत्रार्थ:-नृ, नर, तथा मनुष्य, मानुष इन शब्दोंका एक ही अर्थ है । मनुष्योंकी परा अर्थात् उत्कृष्टस्थिति तीनपल्यकी है, और अपरा अर्थात् जघन्यस्थिति अन्तमुहूर्त पर्यन्त है ॥ १७ ॥ तिर्यग्योनीनां च ॥१८॥ सूत्रार्थ:-जो तिर्यग्योनिसे उत्पन्न होते हैं, उनकी भी उत्कृष्टस्थिति तीनपल्य और जघन्य अन्तर्मुहूर्त है। भाष्यम्-तिर्यग्योनिजानां च परापरे स्थिती त्रिपल्योपमान्तर्मुहूर्ते भवतो यथासङ्ख्यमेव । पृथक्करणं यथासङ्ख्यदोषविनिवृत्त्यर्थम् । इतरथा इदमेकमेव सूत्रमभविष्यदुभत्रय चोभे यथासङ्ख्यं स्यातामिति ॥ विशेषव्याख्या-तिर्यग्योनिसे उत्पन्न होनेवाले जीवोंकी भी परास्थिति तीन पल्योपम है, और अपरास्थिति अन्तर्मुहूर्त पर्यन्त है । परा तथा अपराका, और त्रिपल्योपम तथा अन्तर्मुहूर्तका यथासांख्य है । अर्थात् परास्थिति त्रिपल्योपम है, और अपरा अन्तर्मुहूर्त है। और "नृस्थिती,, इत्यादिसूत्र तथा "तिर्यग्योनिजानां च' इस सूत्रको यथासंख्य दोषकी निवृतिकेलिये पृथक् २ किया है । अन्यथा एक सूत्र होता, और मनुष्योंकी परास्थिति त्रिपल्योपम होती है, और तिर्यग्योनिजोंकी अपरा अन्तर्मुहूर्त कालतककी स्थिति है; ऐसा यथासंख्य बोध हो जाता। द्विविधा चैषां मनुष्यतिर्यग्योनिजानां स्थितिः। भवस्थितिः कायस्थितिश्च । मनुष्याणां यथोक्ते त्रिपल्योपमान्तर्मुहूर्ते परापरे भवस्थिती । कायस्थितिस्तु परा सप्ताष्टौ वा भवग्रहणानि ॥ तिर्यग्योनिजानां च यथोक्ते समासतः परापरे भवस्थिती । व्यासतस्तु शुद्धपृथि१ तिर्यग्योनिजानां चेत्यपि पाठः । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004021
Book TitleSabhashya Tattvarthadhigam Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorThakurprasad Sharma
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages276
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size6 MB
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