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सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् ।
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जातियों)के निवासार्थ तीनसौ योजन लम्बे चौड़े चार ही अन्तरद्वीप हैं । जैसे; एकोरुक अर्थात् एकजंघावालोंका अभाषकोंका, लाङ्गूलिकों अर्थात् पुच्छवालोंका तथा वैषाfrat अर्थात् सींगवालोंका अन्तरद्वीप । और चार सौ योजन प्रवेशकर के चार सौ योजन ही आयाम तथा विष्कंभसहित चार अन्तरद्वीप हैं । जैसे; हयकर्ण, गजकर्ण, गोकर्ण, शष्कुलिकर्णवालोंके । तथा पांचसौ योजन प्रवेश करके पांचसौ ही योजन आयाम तथा विष्कंभसहित अन्तरद्वीप हैं । जैसे; गजमुख, व्याघ्रमुख, आदर्शमुख तथा गोमुखवालोंके । और छहसौ योजन प्रवेश करके छहसौ योजन ही आयाम तथा विष्कंभ प्रमाणवाले अन्तरद्वीप है । जैसे; अश्वमुख, हस्तिमुख, सिंहमुख तथा व्याघ्रमुखवालोंके । और ऐसे ही सातसौ योजन प्रवेश करके सात ही सौ योजन आयाम 1 विष्कंभ प्रमाण अन्तरद्वीप हैं; जैसे; अश्वकर्ण, सिंहकर्ण, हस्तिकर्ण, और कर्णप्रावरणोंके । और ऐसे ही आठसौ योजन प्रवेश करके आठसौ योजन आयाम तथा विष्कंभप्रमाणसहित ही अन्तरद्वीप हैं । जैसे; उल्कामुख, विद्युज्जिव्ह, मेषमुख, और विद्युद्दन्तोंके । तथा नव सौ योजन प्रवेश करके नव सौ योजन विस्तार विष्कंभसहित अन्तर द्वीप हैं । जैसे; घनदन्त, गूढ़दन्त, विशिष्टदन्त, तथा शुद्धदन्तोंके | अब यहां यह जानना आवश्यक है कि, एकोरुक संज्ञक म्लेच्छोंका एकोरुक नाम अन्तरद्वीप है, आभाषकोंका आभाषक; इसी प्रकार शेष अन्य म्लेच्छोंके उसी २ नामके अर्थात् जो उनके नाम हैं, उसी नामके अन्तरद्वीप जानने चाहिये । इसी प्रकार छप्पन अन्तरद्वीप शिखरीपर्वत सम्बन्धी भी जानने चाहिये ॥ १५ ॥
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भरतैरावतविदेहाः कर्मभूमयोऽन्यत्र देवकुरूत्तरकुरुभ्यः ॥ १६ ॥ सूत्रार्थः - मनुष्यक्षेत्रोंमें भरत, ऐरावत तथा विदेह ये कर्म भूमियां हैं, देवकुरु तथा उत्तरकुरुको छोड़ करके ।
भाष्यम् - मनुष्यक्षेत्रे भरतैरावतविदेहाः पञ्चदश कर्मभूमयो भवन्ति । अन्यत्र देवकुरूत्तरकुरुभ्यः । संसारदुर्गान्तिगमकस्य सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रात्मकस्य मोक्षमार्गस्य ज्ञातारः कर्त्तार उपदेष्टारश्च भगवन्तः परमर्षयस्तीर्थकरा अत्रोत्पद्यन्ते । अत्रैव जाताः सिद्धयन्ति नान्यत्र । अतो निर्वाणाय कर्मणः सिद्धिभूमयः कर्मभूमय इति । शेषासु विंशतिर्वशाः सान्तरद्वीपा अकर्मभूमयो भवन्ति । देवकुरूत्तर कुरवस्तु कर्मभूम्यभ्यन्तरा अप्यकर्मभूमय इति ॥
विशेषव्याख्या – मानुषोत्तर पर्वतके पूर्व जो मनुष्यक्षेत्र वर्णन किया है, उसमें भरत, ऐरावत तथा विदेहमें पंचदश कर्मभूमि हैं, किन्तु इनके अभ्यन्तर जो देवकुरु तथा उत्त
१ यह अन्तर द्वीपका भाष्य प्रायः नष्ट होगया है, कई दुर्विदग्ध छयानवें अन्तर द्वीप भाष्य में लिखते हैं, परन्तु यह अनार्ष है, क्योंकि आर्ष जीवागमादि ५६ ही मिलता है । वाचक परंपरा से यह भेद नहीं है, क्योंकि सूत्रका उल्लंघन नहीं होता । इस लिये इष्ट सिद्धांत भाष्यको नष्ट किया है ।
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