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________________ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् अत्राह । उक्तं भवता लोकाकाशेऽवगाहः । तदनन्तरं ऊर्ध्व गच्छत्यालोकान्तादिति । तत्र लोकः कः कतिविधो वा किंसंस्थितो वेति । अत्रोच्यते ॥ अब यहांपर कहते हैं, कि आपने यह कहा है कि धर्माधर्म तथा जीवादि द्रव्योंका लोकाकाश पर्यन्त अवगाह है, अर्थात् सब द्रव्योंकी लोकाकाश पर्यन्त गति है। और उसके पश्चात् यह भी कहा है कि, वे ऊपर लोकके अन्त तक जाते हैं । सो उक्त विषयमें प्रश्न है कि, लोक क्या है ? कै प्रकारका है ? और वह किस प्रकारसे स्थित है ? । अब यहां उत्तर कहते हैं, पञ्चास्तिकायसमुदायो लोकः । ते चास्तिकायाः स्वतत्त्वतो विधानतो लक्षणतश्चोक्ता वक्ष्यन्ते च । स लोकः क्षेत्रविभागेन त्रिविधोऽधस्तिर्यगूर्व चेति । धर्माधर्मास्तिकायौ लोकव्यवस्थाहेतू । तयोरवगाहविशेषाल्लोकानुभावनियमात् सुप्रतिष्ठकवज्राकृतिर्लोकः । अधोलोको गोकन्धराधरार्धाकृतिः । उक्तं ह्येतत् । भूमयः सप्ताधोऽधः पृथुतराच्छनातिच्छत्रसंस्थिता इति ता यथोक्ताः । तिर्यग्लोको झल्लाकृतिः । ऊर्ध्वलोको मृदङ्गाकृतिरिति । तत्र तिर्यग्लोकप्रसिद्ध्यर्थमिदमाकृतिमात्रमुच्यते ॥ पंचास्तिकायोंका जो समुदाय अर्थात् समूह है, वही लोक है । और वे पंचास्तिकाय निजतत्त्वरूपसे, विधानसे और लक्षणसे कुछ कहे हैं, और आगे भी कहेंगे । वह पंचास्तिकायसमूहरूप लोक क्षेत्रविभागसे तीन प्रकारका है; अर्थात् अधोलोक, तिर्यक्लोक, और ऊर्ध्वलोक । पंचास्तिकायोंमेंसे धर्मास्तिकाय तथा अधर्मास्तिकाय ये दोनों लोकोंकीव्यवस्थाके कारण हैं । और इन दोनोंके अवगाहन (गमन व्याप्ति) विशेषसे, लोकके अनुभावके नियमसे सुप्रतिष्टक वज्राकार लोक है, अर्थात् यह आकार सब लोकका है। अधोलोक गौकन्धराधरार्ध(?)के आकार है। यह कहा भी है। “सातों भूमि अधो २ भागमें विशाल और छत्र तथा अतिच्छत्राकार स्थित हैं"। इसप्रकार सातों भूमियोंकी स्थिति जैसी है वैसी कही । और तिर्यगलोक झल्लरीके आकार है । और ऊर्ध्वलोक मृदङ्गके आकार है । उनमें तिर्यग्लोकका केवल आकार मात्र उसकी (तिर्यग्लोककी) प्रसिद्धिके अर्थ संक्षेपसे कहते हैं ॥ ६॥ जम्बूद्वीपलवणादयः शुभनामानो द्वीपसमुद्राः ॥७॥ सूत्रार्थः-जम्बूद्वीपादि शुभनामवाले द्वीप और लवणसमुद्रादि शुभनामवाले समुद्र हैं । भाष्यम्-जम्बूद्वीपादयो द्वीपा लवणादयश्च समुद्राः शुभनामान इति । यावन्ति लोके शुभानि नामानि तन्नामान इत्यर्थः । शुभान्येव वा नामान्येषामिति ते शुभनामानः । द्वीपा. दनन्तरः समुद्रः समुद्रादनन्तरो द्वीपो यथासङ्खयम् । तद्यथा । जम्बूद्वीपो द्वीपो लवणोदः समुद्रः धातकीखण्डो द्वीपः कालोदः समुद्रः पुष्करवरो द्वीपः पुष्करोदः समुद्रः वरुणवरो द्वीपो वरुणोदः समुद्रः क्षीरवरो द्वीपः क्षीरोदः समुद्रो घृतवरो द्वीपो घृतोदः समुद्रः इक्षुवरो Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004021
Book TitleSabhashya Tattvarthadhigam Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorThakurprasad Sharma
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages276
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size6 MB
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