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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् तथा कृष्णपक्ष मिलके एक मास होता है । दो मासका एक ऋतु होता है । तीनऋतुका एक अयन होता है। और दो अयनका एक वर्ष होता है । और वे पांच वर्ष चन्द्रचन्द्राभिवर्धित तथा चन्द्राभिवर्धित नामवाले मिलकर एक युग होता है। और उस पंच वर्षरूप युगके मध्य और अन्तमें अधिक-मास ( दो अधिक-मास ) होते हैं । सूर्य, सवन, चन्द्र, नक्षत्र तथा अभिवर्धित ये युगोंके नाम हैं । और चौरासीसे गुणित शतसहस्र वर्ष, अर्थात् एक लक्षको चौरासीसे गुणा करनेसे चौरासी लक्ष वर्ष हुए, और वे चौरासी लक्ष वर्ष मिलके एक पूर्वाङ्ग होता है । और शतसहस्र पूर्वाङ्ग अर्थात् एक लक्ष पूर्वाङ्ग चौरासीसे गुणित होनेसे चौरासी लक्ष पूर्वाङ्गका एक पूर्व होता है । और वे पूर्व अयुत, कमल, नलिन, कुमुद, तुद्य, टटा, ववा, हाहा हूहूसंज्ञक चौरासी शतसहस्र ( चौरासी लक्ष ) से गुणित होनेसे एक संख्येय काल होता है । और अब इसके आगे उपमासे नियत काल करेंगे। जैसे-एक योजन चौड़ा तथा एक योजन ऊंचा वृत्ताकार एक पल्य (रोमगर्तगढ़ा) हो जो कि एक रात्रिसे लेके सप्त रात्रिपर्यन्त उत्पन्न मेषादि पशुओंके लोमों(रोमों) से गाढरूपसे अर्थात् खूब ठासके पूर्ण किया जाय तत् पश्चात् सौ सौ वर्षके अनन्तर एक २ रोम उस गढ़े से निकाला जाय तो जितने कालमें वह गढ़ा सर्वथा रिक्त अर्थात् खाली होजाय उसको एक पल्योपमकाल कहते हैं । और वह पल्योपम दशकोटाकोटिसे गुणा करनेसे एक सागरोपम काल होता है । और चार कोटाकोटी सागरोपमकी एक सुषमसुषमा होती है । तीन कोटाकोटी सागरोपमकी सुषमा है। दो कोटाकोटी सागरोपमकी सुषमदुःषमा होती है । बयालीससहस्र वर्ष कम एक सागरोपमकी एक दुःषमसुषमा होती है । इक्कीससहस्रवर्षकी दुःषमा होती है। और उतनेहीकी दुःषमदुःषमाभी होती है । और इन्ही सुषमसुषमा आदि छहों कालोंकी अनुलोम प्रतिलोमभावसे अवसर्पिणी तथा उत्सर्पिणी होती हैं । अर्थात् अनुलोम (जिस क्रमसे लिखा) वह तो अवसर्पिणी, और इसके विपरीत क्रमसे अर्थात् प्रथम दुःषमदुःषमा १ पुनः दुःषमा २ दुःषमसुषमा ३ सुषमदुःषमा ४ सुषमा ५ और षष्ठ सुषमसुषमा यह उत्सर्पिणी है। ये अनादि अनन्त अवसर्पिणी तथा उत्सर्पिणी रात्रिदिनके सदृश भरत तथा ऐरावत वर्षों में परिवर्तित होती रहती हैं । अर्थात् एकके अनन्तर द्वितीय निरन्तर चक्र लगाया करती हैं । जैसे-अवसर्पिणीके पीछे उत्सर्पिणी, और उत्सर्पिणीके पीछे पुनः अवसर्पिणी, यह चक्र घूमा करता है । और इन दोनोंमें शरीर, आयु, तथा शुभ परिणामोंकी अनन्त गुण हानि और वृद्धिभी होती चली जाती है । तात्पर्य यह कि अवसर्पिणी कालमें ज्यों २ दुष्ट कालकी ओर उतरेंगे त्यों २ शरीर, आयु और शुभपरिणामोंकी हानि होती जायगी और उत्सर्पिणीमें इनकी वृद्धि होती जायगी । तथा अशुभ परिणामोंकीभी वृद्धि तथा हानि होती जाती है। अर्थात् अवसर्पिणीमें आगे २ के कालमें अशुभ
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