________________
सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् ।
१०५
1
1
परिणामोंकी वृद्धि होती जायगी और उत्सर्पिणीमें इनकी अनन्तगुण हानि होती जायगी । और भरत तथा ऐरावत वर्षके सिवाय अन्यत्र अन्य वर्षो में एक एक गुण अवस्थित रहते हैं । जैसे कुरुवर्ष में सुषमसुषमाही सदा रहती है, हरिवर्ष तथा रम्यकमें सदा सुषमा रहती है; हैमवत और हैरण्यवत वर्षोंमें सुषमदुःषमा रहती है; अन्तरद्वीपसहित विदेहों में दुःषमसुषमा रहती हैं; इसी प्रकार मनुष्यक्षेत्रों में कालविभाग सर्वत्र प्राप्त समझना चाहिये ।
बहिरवस्थिताः ॥ १६ ॥
सूत्रार्थः – मनुष्यलोकके बाहर ज्योतिष्कदेव अवस्थित रहते हैं ।
भाष्यम् – नृलोकाद्वहिज्र्ज्योतिष्का अवस्थिताः । अवस्थिता इत्यविचारिणोऽवस्थितविमानप्रदेशा अवस्थितलेश्याप्रकाशा इत्यर्थः । सुखशीतोष्णरश्मयश्चेति ॥
विशेषव्याख्या –“ज्योतिष्कदेव मनुष्यलोक में मेरुकी प्रदक्षिणा करते हुये नित्यगतिशील रहते हैं” यह विषय ज्योतिष्कदेवोंके विषयमें पूर्व ( अ. ४ सू. १४ ) है । अब कहते हैं कि मनुष्यलोकके बाह्य ये विषय स्थित रहते हैं । इसका तात्पर्य यह है कि संचरण वा विचरणशील न होकर विमानप्रदेशमें अवस्थित रहते हैं । अर्थात् इनकी लेश्या तथा प्रकाश अवस्थित रहता है । और मनुष्यलोकके बाहर ज्योतिष्कदेवोंकी शीत और उष्ण किरणें सुखदायक होती हैं ।
I
वैमानिकाः ॥ १७ ॥
सूत्रार्थ :- वैमानिक चतुर्थ देवनिकाय है ।
भाष्यम् – चतुर्थो देवनिकायो वैमानिकाः । तेऽत ऊर्ध्वं वक्ष्यन्ते । विमानेषु भवा वैमानिकाः ।
विशेषव्याख्या -- चतुर्थ तथा अन्तिम देवोंका निकाय वैमानिक है । अब आगे उनका वर्णन करेंगे । वैमानिक शब्दका अर्थ यह है कि विमानों में होनेवाले, अर्थात् जो विमानोंमे हों वे वैमानिक कहलाते हैं ।
1
कल्पोपपन्नाः कल्पातीताश्च ॥ १८ ॥
सूत्रार्थः – कल्पोपपन्न तथा कल्पातीत ये दो भेद वैमानिक देवोंके हैं।
भाष्यम् – द्विविधा वैमानिका देवाः । कल्पोपपन्नाः कल्पातीताश्च । तान् परस्ताद्वक्ष्याम इति ।। विशेषव्याख्या - वैमानिक देवोंके जो कल्पोपपन्न तथा कल्पातीत दो भेद हैं, उनको हम आगे वर्णन करेंगे ।
उपर्युपरि ॥ १९ ॥
सूत्रार्थः - वैमानिक देव ऊपर २ स्थित हैं ।
१४
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org