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सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् ।
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भास्वर शुक्लवर्ण, तथा वज्रोंसे चिह्नित विद्युत्कुमार होते हैं । अतिसुन्दर ग्रीवा (गला) तथा वक्षस्थल ( छाती ) से भूषित, श्याम तथा शुद्ध वर्ण, तथा गरुडसे चिह्नित सुपर्णकुमार होते हैं । मान-ऊर्ध्वमान और प्रमाण-युक्त, प्रकाशशील, शुद्ध शुक्लवर्ण, और घटसे चिह्नित अग्निकुमार होते हैं । स्थिर - स्थूल तथा वर्तुलाकार शरीरधारी, निमग्न अर्थात् नमित उदरसहित, शुद्ध वर्ण, और अश्वसे चिह्नित बालकुमार होते हैं । चिक्कण, स्निग्ध, गम्भीर, प्रतिध्वनि और महानाद - संयुक्त, कृष्णवर्ण, और वर्धमानचिह्नयुक्त स्तनितकुमार होते हैं । जंघा तथा कटिप्रदेशमें अधिक सुन्दर, कृष्ण श्यामवर्ण, तथा मकरसे चिह्नित उदधिकुमार होते हैं । वक्षस्थल, कन्धा, बाहू, और अग्र हस्तों के विषे अधिक सुन्दर, श्याम शुद्ध वर्ण, तथा सिंहसे चिह्नित द्वीपकुमार होते हैं । और जंघा, और अग्रपादों में अधिक सौन्दर्य - सहित, श्यामवर्ण और हस्तियों से चिह्नित दिकुमार होते हैं । सब ए दशो कुमार अनेक प्रकारके वस्त्र, आभूषण तथा शस्त्र - अस्त्र- आदिसे सम्पन्न होते हैं |
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व्यन्तराः किन्नरकिम्पुरुषमहोरगगन्धर्वयक्षराक्षसभूतपिशाचाः॥१२॥ सूत्रार्थः—– द्वितीय व्यन्तरनिकाय है और उसके किन्नर आदि आठ भेद हैं ।
भाष्यम् – अष्टविधो द्वितीयो देवनिकायः । एतानि चास्य विधानानि भवन्ति । अस्तिगूर्ध्व च त्रिष्वपि लोकेषु भवननगरेष्वावासेषु च प्रतिवसन्ति । यस्माच्चाधस्तिर्यगूर्ध्व च त्रीनपि लोकान् स्पृशन्तः स्वातन्त्र्यात्पराभियोगाच्च प्रायेण प्रतिपतन्त्यनियतगतिप्रचारा मनुष्यानपि केचित्यवदुपचरन्ति विविधेषु च शैलकन्दरान्तरवनविवरादिषु प्रतिवसन्त्यतो व्यन्तरा इत्युच्यन्ते ।
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विशेषव्याख्या – अब द्वितीय जो निकाय है वह व्यन्तर है । और उसके भेद आठ ये हैं । जैसे- किन्नर १ किम्पुरुष २ महोरग ३ गन्धर्व ४ यक्ष ५ राक्षस ६ भूत ७ और पिशाच ८ । ये' अधोभागमें तिर्य्यग्भागमें, तथा ऊर्ध्वभाग में, तीनो लोकों में, भवनोंमें, नगरोंमें, तथा आवासोंमें ये व्यन्तर देव निवास करते हैं । इस हेतुसे कि अधोभागमें, तिर्य्यग्भागमें, और ऊर्ध्वभाग में तीनो लोकों को स्पर्श करते हुए स्वतंत्रतासे, और दूसरेके अभियोगसे प्रायः अनियत गतिके प्रचारसे चारों ओर गिरते घूमते रहते हैं, और कोई २ मनुष्योंकी भी भृत्यके समान सेवा करते हैं; तथा विविध ( अनेक ) प्रकारके पर्वत, कन्दरा, अन्तर्वन और विवर आदिमें निवास करते रहते हैं, इस हेतुसे ये व्यन्तर कहे जाते हैं ॥
तत्र किन्नरा दशविधाः । तद्यथा - किन्नराः किम्पुरुषाः किंपुरुषोत्तमाः किन्नरोत्तमा हृदयंगमा रूपशालिनोऽनिन्दिता मनोरमा रतिप्रिया रतिश्रेष्ठा इति ॥ किम्पुरुषा दशविधाः ।
१ रत्नप्रभा भूमिका सहस्र योजन अवगाढ जो प्रथमकाण्ड उसके नीचे ऊपर शत २ ( सौ २) योजन छोड़के मध्यमें असंख्येय लक्ष भूमिनगर तथा आवास हैं । जो व्यन्तरोंके निवासस्थान हैं ।
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