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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम्
विशेषव्याख्या— सम्यग् अर्थात् पूर्ण विधानसे ज्ञानपूर्वक स्वीकार करके सम्यग्दर्शनपूर्वक काय, वाग् तथा मनोरूप जो तीन (३) प्रकारके योग पूर्वमें कहे हैं उनका जो निरोध ( रोकना ) है वह गुप्त ' है । वह कायगुप्ति, वागूगुप्ति, और मनोगुप्ति, इन भेदोंसे तीन (३) प्रकारकी है । उनमें शयन, आसन, आदान ( ग्रहण ), निक्षेप ( त्याग वा किसी वस्तुको एक स्थानसे दूसरे स्थानमें फेंकना वा संचालन करना ) तथा स्थानचङ्क्रमण अर्थात् इधर उधर स्थानोंमें भ्रमण, इत्यादि कार्योंमें शरीरकी चेष्टाका नियत अर्थात् अनियत रूपसे निरर्थक शरीरकी चेष्टा वा सर्वथा चेष्टा न करनी, यह कायगुप्ति है । याचनमें, पूंछनेमें, तथा पूछे हुए पदार्थका व्याख्यान करनेमें वाणीका नियम, अथवा सर्वथा मौन ही रहना यह वागगुप्ति है । तथा निन्दनीय वा दुष्ट संकल्पोंका निरोध, कुशल (उत्तम) संकल्प करना, अथवा कुशल और अकुशल दोनों प्रकारके संकल्पों का जो निरोध है, वह मनोगुप्ति है ॥ ४ ॥
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भाषैषणादाननिक्षेपोत्सर्गाः समितयः ॥ ५ ॥
सूत्रार्थ - ईर्ष्या, भाषा, एषणा, आदान, निक्षेप, तथा उत्सर्ग; इन भेदोंसे पांच (५) सेमिति होती हैं ॥ ५ ॥
भाष्यम् — सम्यगीर्या सम्यग्भाषा सम्यगेषणा सम्यगादाननिक्षेपौ सम्यगुत्सर्ग इति पञ्च समितयः ।। तत्रावश्यकायैव संयमार्थ सर्वतो युगमात्रनिरीक्षणायुक्तस्य शनैर्न्यस्तपदा गतिरीर्यासमितिः । हितमितासंदिग्धानवद्यार्थनियतभाषणं भाषासमितिः । अन्नपानरजोहरणपात्रचीवरादीनां धर्मसाधनानामाश्रयस्य चोद्गमोत्पादनैषणादोषवर्जन मेषणासमितिः । रजोहरणपात्रचीवरादीनां पीठफलकादीनां चावश्यकार्थ निरीक्ष्य प्रमृज्य चादाननिक्षेपौ आदाननिक्षेपणासमितिः । स्थण्डिले स्थावरजङ्गमजन्तुवर्जिते निरीक्ष्य प्रमृज्य च मूत्रपुरीषादीनामुत्सर्ग उत्सर्गसमितिरिति ॥
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विशेषव्याख्या—यहां पूर्वसूत्र से सम्यक् पदकी अनुवृत्ति है और उसका संबन्ध पांचों प्रकारोंके साथ है। इसलिये सम्यक् ईर्यासमिति, सम्यग्भाषासमिति, सम्यक् एषणासमिति, सम्यक् आदाननिक्षेपसमिति, तथा सम्यग् उत्सर्गसमिति; ये पांच समिति हैं । उनमें आवश्यक कार्यके ही लिये संयमार्थ युगमात्र ( चार हाथ ) सर्वत्र देखने में जो तत्पर है उसकी शनैः २ अर्थात् धीरे २ चरणोंको रखके जो गति ( गमन करना ) है उसको ईर्यासमिति कहते हैं । सब जीवोंका हितसाधक, परिमित, असंदिग्ध ( संदेहरहित )तथा अनिन्दनीय अर्थके पदोंका जो नियमितरूपसे भाषण है वह भाषासमिति है अन्न, पान, रजोहरण ( झाडू आदि ), पात्र ( कमण्डलुआदि ) तथा वस्त्रादि धर्मसाधन
१ जिससे संसार से आत्माकी रक्षा हो उसको गुप्ति कहते हैं ।
२ प्राणियोंकी पीडा दूर करनेके लिये भले प्रकारको समिति कहते हैं ।
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