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अत्रोच्यते । यहां सूत्र कहते हैं ।
सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् ।
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विशुद्धिक्षेत्रखामिविषयेभ्योऽवधिमनः पर्याययोः ॥ २६ ॥ सूत्रार्थः - विशुद्धि, क्षेत्र, स्वामी तथा विषयकृत अवधिज्ञान और मनःपर्यायज्ञानमें विशेषता है ।
भाष्यम् - विशुद्धिकृतः क्षेत्रकृतः स्वामिकृतो विषयकृतश्चानयोर्विशेषो भवत्यवधिमनः पर्यायज्ञानयोः । तद्यथा । अवधिज्ञानान्मनः पर्यायज्ञानं विशुद्धतरम् । यावन्ति हि रूपाणि द्रव्याण्यवधिज्ञानी जानीते तानि मनःपर्यायज्ञानी विशुद्धतराणि मनोगतानि जानीते । किं चान्यत् । क्षेत्रकृतश्चानयोः प्रतिविशेषः । अवधिज्ञानमङ्गुलस्यासंङ्घयेयभागादिषूत्पन्नं भवत्या - सर्वलोकात् । मनःपर्यायज्ञानं तु मनुष्यक्षेत्र एव भवति नान्यक्षेत्र इति ॥ किं चान्यत् । स्वामिकृतश्चानयोः प्रतिविशेषः । अवधिज्ञानं संयतस्य असंयतस्य वा सर्वगतिषु भवति । मनःपर्यायज्ञानं तु मनुष्यसंयतस्यैव भवति नान्यस्य ॥ किं चान्यत् विषयकृतश्चानयोः प्रतिविशेषः । रूपिद्रव्येष्वसर्वपर्यायेष्ववधेर्विषयनिबन्धो भवति । तदनन्तभागे मनःपर्यायस्येति ।।
विशेषव्याख्या—विशुद्धिकृत अर्थात् अधिक शुद्धिद्वारा क्षेत्रकृत अर्थात् उत्पत्तिस्थानद्वारा स्वामिद्वारा और विषयद्वारा अवधिज्ञान तथा मनःपर्यायज्ञानमें भेद है । जैसे अवधि - ज्ञानकी अपेक्षासे मनःपर्यायज्ञान अधिकतर विशुद्ध है, जितने रूप वा रूपी द्रव्यों को अवधिज्ञानवाला जानता है, उनको मनःपर्यायज्ञानी अधिकतर शुद्धतासे मनोगत होनेपर भी अधिकतर शुद्धतासे जान लेता है । और क्षेत्रकृति भी इन दोनों अर्थात् अवधि तथा मनःपर्यायज्ञानमें विशेषता है । जैसे अवधिज्ञान तो अंगुलके असंख्येय भागादि क्षेत्रों में उत्पन्न होकर सम्पूर्ण लोकपर्यन्तमें हो सक्ता है और मनःपर्यायज्ञान मनुष्य क्षेत्रमें ही उत्पन्न होता है न कि अन्य किसी क्षेत्रमें । और इन दोनोंमें स्वामिकृत भी विशेषता है । जैसे अवधिज्ञान तो संयत असंयत सब ही जीवोंको सब गतियों में होता है; परन्तु मनःपर्यायज्ञान मनुष्य योनिमें सो भी केवल संयतीको होता है, अन्य जीवको व असंयत मनुष्यको नहीं । और इन दोनों में विषयकृत भी विशेषता है । जैसे रूपवाले द्रव्योंमें असर्वपर्यायोंमें ही अवधिज्ञानका विषय निबंध है, अर्थात् अवधिज्ञानी रूपीद्रव्योंके कतिपय पर्यायों को ही जान सक्ता है, न कि सम्पूर्ण द्रव्य तथा सर्व पर्यायोंको, परन्तु मनःपर्याय ज्ञानका विषय तो उसके अनन्त भागमें भी है । तात्पर्य यह कि जो रूपीद्रव्य अवधिज्ञानसे जाना जाता है, उसके अनन्तवें सूक्ष्म भागको भी मनःपर्यायज्ञान जान लेता है ॥ २६ ॥
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अत्राह । उक्तं मनः पर्य्यायज्ञानम् । अथ केवलज्ञानं किमिति । अत्रोच्यते । केवलज्ञानं दशमेऽध्याये वक्ष्यते । मोहक्षयाज्ज्ञानदर्शनावरणान्तरायक्षयाच्च केवलमिति ॥
अब यहांपर कहते हैं, कि मनःपर्यायज्ञानका वर्णन तो कर चुके, अब उसके अनन्तर क्रमप्राप्त केवलज्ञान क्या वस्तु है ? | यहां कहतें हैं कि, केवल ज्ञानको विशेष
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