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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् होगये । और इनमेंभी प्रत्येकके कृत, कारित, वा अनुमतके भेदसे पुनः तीन २ भेद हैं । जैसे-कृतकायसंरम्भ, कारित कायसंरम्भ, तथा अनुमत कायसंरम्भ, ऐसेही कृत वाक्संरम्भ, कारित वाक्संरम्भ तथा अनुमत वाक्संरम्भ, तथा कृतमनःसंरम्भ, कारितमनः संरम्भ, और अनुमतमनःसंरम्भ । इसीप्रकार समारम्भ और आरम्भके साथभी काय आदिके योजनपूर्वक कृत, कारित तथा अनुमतके योजनसे प्रत्येकके तीन २ भेद होते हैं ।
और यह भी पुनः प्रत्येक कषायके विशेषसे चार २ प्रकारके होते हैं। जैसे-क्रोधकृत कायसंरंभ, मानकृत कायसंरंभ, मायाकृत कायसंरंभ, लोभकृत कायसंरंभ; क्रोधकारित कायसंरंभ, मानकारित कायसंरम्भ, मायाकारित कायसंरम्भ, लोभकारित कायसंरंभ; क्रोधानुमत कायसंरंभ, मानानुमत कायसंरम्भ, मायानुमत कायसंरंभ, लोभानुमत कायसंरंभ ॥ इसीप्रकार वाग् तथा मनके साथभी योजित करके कहना चाहिये । जैसे—क्रोधकृत वाक्संरम्भ, मानकृत वाक्संरम्भ, मायाकृत वाक्संरम्भ, तथा लोभकृत वाक्संरम्भ, इसी रीतिसे कारित आदिको लगाके समझलेना । और ऐसेही समारंभ तथा आरंभके भी भेद होंगे। इसप्रकार संक्षेपसे जीवाधिकरणके प्रत्येक (संरम्भादि) ३६ छत्तीस २ भेद होते हैं । और तीनोंके अर्थात् संरंभ आदिके मिलके एकसौ आठ (१०८) हुए । क्योंकि छत्तीसको त्रिगुण करनेसे (१०८) होते हैं। _कषायसहित होनेसे संरम्भ होता है, परितापनासे अर्थात् दुःख आदि संप्रदानसे समारम्भ होता है, और प्राणियोंका वध करना आरम्भ होता है. इसप्रकार त्रिविध हेतुसे त्रिविध योग समझना चाहिये ॥९॥
अत्राह । अथाजीवाधिकरणं किमिति । अत्रोच्यते
अब यहांपर कहते हैं कि अजीव अधिकरण क्या है ? । इसके उत्तरमें यह अग्रिम सूत्र कहते हैं
निर्वर्तनानिक्षेपसंयोगनिसर्गा द्विचतुर्दित्रिभेदाः परम् ॥ १०॥
सूत्रार्थ—पर अर्थात् अजीव अधिकरणके निर्वर्तना, निक्षेप, संयोग तथा निसर्ग ये चार भेद संक्षेपसे हैं । और निर्वर्तना आदिके क्रमसे दो, चार, दो, तथा तीन भेद हैं।
भाष्यम्-परमिति सूत्रक्रमप्रामाण्यादजीवाधिकरणमाह । तत्समासतश्चतुर्विधम् । तद्यथानिर्वर्तना निक्षेपः संयोगो निसर्ग इति ॥ तत्र निर्वर्तनाधिकरणं द्विविधम् । मूलगुणनिर्वर्तनाधिकरणमुत्तरगुणनिर्वर्तनाधिकरणं च । तत्र मूलगुणनिर्वर्तनाः पञ्च, शरीराणि वाङ्मनःप्राणापानाश्च । उत्तरगुणनिर्वर्तना काष्ठपुस्तचित्रकर्मादीनि ॥ निक्षेपाधिकरणं चतुर्विधम् । तद्यथाअप्रत्यवेक्षितनिक्षेपाधिकरणं दुःप्रमार्जितनिक्षेपाधिकरणं सहसानिक्षेपाधिकरणमनाभोगनिक्षेपाधिकरणमिति ।। संयोगाधिकरणं द्विविधम् । भक्तपानसंयोजनाधिकरणमुपकरणसंयोजनाधिकरणं च ॥ निसर्गाधिकरणं त्रिविधम् । कायनिसर्गाधिकरणं वाडिसर्गाधिकरणं मनो. निसर्गाधिकरणमिति ।
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