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सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम्। विशेषव्याख्या-"अधिकरणं जीवाजीवाः" ( अ० ६ सू० ८ ) इस सूत्रके क्रमसे यहां 'पर' शब्दसे अजीव अधिकरणका ग्रहण है, और वह निर्वर्तना, निक्षेप, संयोग, तथा निसर्ग, इन चार भेदोंमें संक्षेपसे विभक्त है। उनमें निर्वर्तनाधिकरणके दो भेद हैं । जैसेमूलगुणनिवर्तनाधिकरण तथा उत्तरगुणनिर्वर्तनाधिकरण । उनमें भी मूलगुणनिर्वर्तना पञ्चविध है, जैसे-शरीर (औदरिक आदि), वाक्, मन, तथा प्राण व अपान । और उत्तरगुणनिर्वर्तनाधिकरण काष्ठ, पुस्त, चित्रकर्मादिक । निक्षेपाधिकरण चार प्रकारका है । जैसे• अप्रत्यवेक्षित निक्षेपाधिकरण अर्थात् विना अन्वेषण किये किसी वस्तुको कहीं स्थापित
करना । द्वितीय दुःप्रमार्जित निक्षेपाधिकरण अर्थात् उत्तमतासे मार्जन ( सफाई ) किये विना कहीं कुछ रख देना । तृतीय सहसानिक्षेपाधिकरण अर्थात् अकस्मात् (एकदम) कुछ रख देना । चौथा अनाभोगनिक्षेपाधिकरण अर्थात् विना शुद्ध किये तथा विना देखे स्थानमें शरीर आदिका रख देना । संयोगाधिकरण दो प्रकारका है । जैसे-भक्तपान ( अन्नपान) संयोजनाधिकरण, तथा उपकरण ( भोजनसे भिन्न अन्य सामग्री वस्त्राभूषण आदि ) संयोजनाधिकरण । और चतुर्थ निसर्गाधिकरण, तीन प्रकारका है । जैसे कामनिसर्गाधिकरण, वागनिसर्गाधिकरण, तथा मनोनिसर्गाधिकरण ।। ___ अत्राह । उक्तं भवता सकषायाकषाययोर्योगः साम्परायिकर्यापथयोरास्रव इति । साम्परायिकं चाष्टविधं वक्ष्यते । तत् किं सर्वस्याविशिष्ट आस्रव आहोस्वित्प्रतिविशेषोऽस्तीति । अत्रोच्यते । सत्यपि योगत्वाविशेषे प्रकृतिं कृति प्राप्यास्रवविशेषो भवति । तद्यथा
अब कहते हैं कि आपने सकषाय तथा अकषायका योग साम्परायिक तथा ईर्यापथका आत्रवरूप ( अ० ६ सू० ५ में ) कहा है 'सो साम्परायिक आठ प्रकारका है। यह आगे ( अ० ६, सू० २६ में ) कहेंगे । सो यहांपर प्रश्न यह है कि सब योगोंका आस्रव अविशिष्ट ( विना किसी विशेषके ) है अथवा कुछ विशेष है ? । इस-पर कहते हैं कि यद्यपि योगस्वरूपमें विशेषता न रहनेपर भी प्रकृतिकी कृतिको प्राप्त होकर आस्रवमें विशेषता होती है । जैसेतत्प्रदोषनिह्नवमात्सर्यान्तरायासादनोपघाता ज्ञानदर्शनावरणयोः॥११॥
सूत्रार्थ—ए तत्प्रदोषादिक ज्ञानावरण तथा दर्शनावरणके आस्रवके कारण हैं। भाष्यम्-आस्रवो ज्ञानस्य ज्ञानवतां ज्ञानसाधनानां च प्रदोषो निह्नवो मात्सर्यमन्तराय आसादन उपघात इति ज्ञानावरणास्रवा भवन्ति । एतैर्हि ज्ञानावरणं कर्म बध्यते ॥ एवमेव दर्शनावरणस्येति ॥
विशेषव्याख्या-ज्ञान अथवा ज्ञानके साधनों, वा ज्ञानियोंके प्रदोष, निह्नव (ज्ञाना. दिका छिपाना, जैसे-जानते हुए भी कहना कि यह मैं नहीं जानता) मात्सर्य (डाह, देनेयोग्य ज्ञानको नहीं देना), अन्तराय (ज्ञानका व्यवच्छेद करना) आसादन ('ज्ञान प्रकाश करते
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