________________
१४८
रायचन्द्रजैनशास्त्र मालायाम्
हुए किसी दूसरे को रोकना) तथा उपघात (प्रशस्त ज्ञानमें दोष लगाना) ये छहो ज्ञानावरण तथा दर्शनावरणके आस्रव होते हैं । अर्थात् इन प्रदोष आदिसे ज्ञानावरण कर्मका बन्ध होता है, और ऐसेही इन्हीं कारणोंसे दर्शनावरण कर्मकाभी बन्ध होता है । तात्पर्य्य यह कि ज्ञान, ज्ञानसाधन, वा ज्ञानियोंके संबन्ध में प्रदोष, निह्नव आदि ज्ञानावरण तथा दर्शनावरणके आस्रव के हेतु होते हैं ॥ ११ ॥
॥१२॥
दुःखशोकतापाक्रन्दनवधपरिदेवनान्यात्मपरोभयस्थान्यसदेद्यस्य सूत्रार्थ – दुःखशोकादि आत्मगत हों, वा परमें उत्पन्न किये जायँ अथवा उभयमें . हों तो वे असद्वेद्य आस्रव होते हैं ।
भाष्यम् – दुःखं शोकस्ताप आक्रन्दनं वधः परिदेवनमित्यात्मसंस्थानि परस्य क्रियमाणा - न्युभयोश्च क्रियमाणान्यसद्वेद्यस्यास्रवा भवन्तीति ।
विशेषव्याख्या – दुःख ( पीडारूप परिणाम ), शोक ( अनुग्रहरहित होनेसे विकलता), ताप (पश्चात्ताप ), आक्रन्दन ( शोकादिकसे व्यक्तरूप रोदन ), वध तथा परिदेवन ( ऐसा रोना कि जिससे हरएकको दया आजाय ) ये आत्मसंस्थ हों अर्थात् अपनेमें हों वा परमें किये जायँ अथवा अपने पराये उभयमें किये जायँ तो वे असद्वेद्य ( असद्वेदनीयता असातावेदनीय) के आस्रव होते हैं । अर्थात् इनसे असद्वेद्य कर्मबन्ध होता है ॥ १२ ॥ भूतवत्यनुकम्पा दानं सरागसंयमादियोगः क्षान्तिः शौचमिति सद्वेद्यस्य ॥ १३ ॥
सूत्रार्थ - सर्वभूतानुकम्पा आदि सद्वेधके आस्रवके हेतु होते हैं ।
भाष्यम् – सर्वभूतानुकम्पा अगारिष्वनगारिषु च प्रतिष्वनुकम्पाविशेषो दानं सरागसंयमः संयमासंयमोऽकामनिर्जरा बालतपो योगः क्षान्तिः शौचमिति सद्वेद्यस्यास्रवा भवन्ति ॥ विशेषव्याख्या - संपूर्ण प्राणीमात्रके ऊपर अनुकंपा अर्थात् दया वा कृपादृष्ट तथा अगारी व अनगारी व्रतियोंपर विशेष अनुकंपा, सरागसंयमादि अर्थात् सरागसंयम, संयमासंयम, अकामनिर्जरा, बालतप, योगे, क्षांति, तथा शौच ए सब सद्वेद्य (सातावेदनीय) के आवके कारण होते हैं ॥ १३ ॥
केवलिश्रुतसङ्घधर्मदेवावर्णवादी दर्शनमोहस्य ॥ १४ ॥
सूत्रार्थ — केवली, श्रुत, संघ, धर्म और देव इनका अवर्णवाद ( निन्दावाद ) करना, ये दर्शनमोहके आवके हेतु हैं ।
भाष्यम् – भगवतां परमर्षीणां केवलिनामर्हस्प्रोक्तस्य च साङ्गोपाङ्गस्य श्रुतस्य चातुर्वर्ण्यस्य सङ्घस्य पञ्चमहाव्रतसाधनस्य धर्मस्य चतुर्विधानां च देवानामवर्णवादी दर्शनमोहस्यास्रवा इति ॥
१ यहां योग से यह तात्पर्य है कि लोकके अभिमत काय वचनादि सतक्रियाका अनुष्ठान करना। यहां दण्डभावनिवृत्त्यर्थं उस ( योग ) का कथन है ।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org