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________________ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् मृत्तिकालेपसङ्गविनिर्मुक्तं मोक्षानन्तरमेवोर्ध्वं गच्छति आसलिलोर्ध्वतलात् एवमूर्ध्वगौरवगतिधर्मा जीवोऽप्यष्टकर्ममृत्तिकालेपवेष्टितः तत्सङ्गात्संसारमहार्णवे भवसलिले निमग्नो भवासक्तोऽधस्तिर्यगूर्ध्वं च गच्छति सम्यग्दर्शनादिसलिलक्केदात्प्रहीणाष्टविधकर्ममृत्तिकालेप ऊर्ध्वगौरवादूर्ध्वमेव गच्छत्या लोकान्तात् ॥ २३० तथागतिपरिणामाच्च - उसी प्रकार गति परिणाम होनेसे भी मुक्त जीवकी ऊर्ध्व गति होती है। जैसे, ऊर्ध्वभागमें गौरव ( गुरुता ) धर्मके धारण करनेसे, और मुक्तिकाल में पूर्वप्रयोग अर्थात् प्रयत्न व्यापार आदि हेतुओंसे इस जीवका वैसाही गति परिणाम दृष्ट होता है जिससे कि इसकी सिच्यमान गति होती है, और वह सिच्यमान गति ऊर्ध्व देश में ही होती है नकि अधोभाग, और न तिर्यक् भागमें; क्योंकि अधोदेश, अथवा तिर्य्यक् देशमें गति होनेमें गौरव, प्रयोग ( व्यापार वा प्रयत्न ) परिणाम तथा सङ्गयोगका अभाव है | जैसे कि गुणयुक्त अर्थात् उत्तम भूमिमें बोया हो, ऋतुकाल ( निज समय ) में उत्पन्न हो, बीजके उद्भेद ( बीजसे अँखुआ निकलेनेके समय ) से अङ्कुर, पल्लव, पत्र, पुष्प तथा फल काल पर्यंत आदर पूर्वक सिंचन आदि पालन पोषण आदि कर्मोंसे परिणामको प्राप्त (अच्छी तरह से परिपक्व ) तथा निजसमयपर तोड़ा हुआ जो शुष्क (सूखा ) अलाबू अर्थात् लौआ वा तितलौकी ( तुबेका ) फल जलमें कदापि नहीं डूबता । और वही अलाबू (बेका फल ) यदि गुरुतर ( भारी ) काली मृत्तिकाके लेपोंसे, वा अन्य घनीभूत गुरुतर पदार्थोंके लेपोंसे लिप्त घनीभूत मृत्तिकाके लेपरूप वेष्ट प्राप्त नैमि - त्तिक गुरुता ( भारीपन ) सहित हो तो जलमें प्रक्षिप्त होनेपर अर्थात् जलमें छोड़नेपर डूब जाता है । और जो कुछ काल पर्यंत जलमें भीगता रहै तो उसके द्वारा इस ( फल ) की मृत्तिकाका लेप दूर हो जाता है, तब मृत्तिकाके लेपसे विनिर्मुक्त होकर मोक्षके अनन्तरही पुनः ऊर्ध्व देश में जलके ऊपर भाग पर्यंत, अर्थात् जलके ऊपरके भागतक ऊपरही जाता है । ऐसेही ऊर्ध्व भागमें स्वभावसिद्ध गौरवधर्मधारी जीव भी अष्टविध कर्म स्वरूप मृत्तिकाके लेपनरूप वेष्टनवेष्टित होनेसे उन कर्मोंके सङ्गसे संसाररूपी समुद्र में डूबता है, और इसमें आसक्त होनेसे अनेक जन्मोंमें अधोभाग, तिर्यग् भाग, तथा ऊर्ध्व भाग में भी गमन करता है; परन्तु जब सम्यग्दर्शन आदि जलसे भली भांति आक्लिन्न अर्थात् भीगने से अष्टविध कर्मरूप मृत्तिकालेप इसका सर्वथा नष्ट हो जाता है तब ऊर्ध्वगमन गौरव धर्म धारण करनेसे लोकान्तपर्यंत ऊपरकोही जाता है | 1 1 स्यादेतत् लोकान्तादप्यूर्ध्व मुक्तस्य गतिः किमर्थं न भवतीति । अत्रोच्यते । धर्मास्तिकायाभावात् । धर्मास्तिकायो हि जीवपुद्गलानां गत्युपग्रहेणोपकुरुते । स तत्र नास्ति । तस्माद्गत्यु - पग्रहकारणाभावात्परतो गतिर्न भवत्यसु अलाबुवत् । नाधो न तिर्यगित्युक्तम् । तत्रैवानुश्रेणिगतिर्लोकान्तेऽवतिष्ठते मुक्तो निःक्रियः इति ॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004021
Book TitleSabhashya Tattvarthadhigam Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorThakurprasad Sharma
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages276
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size6 MB
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