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सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् ।
२३१ अब कहते हैं कि ऊर्ध्व गतिके विषयमें तो जो रहा वह उसी प्रकार रहै, अर्थात् उसको स्वीकार करनेमें कोई बाधा नहीं है; परन्तु लोकान्तके ऊपर भी मुक्त जीवकी गति क्यों नहीं होती ? (क्योंकि ऊर्ध्व गति स्वभाव होनेसे सर्वथा चलाही जाना चाहिये ) अब इस विषयमें कहते हैं कि लोकान्तसे ऊपर धर्मास्तिकाय पदार्थका अभाव है; क्योंकि धमास्तिकाय जीव और पुद्गलोकी गतिमें उपकार करता है, अर्थात् दोनोंकी गतिमें सहकारी कारण है। वह धर्मास्तिकाय वहां ( लोकान्त वा लोकाकाशके ऊपर ) नहीं है इससे गतिमें उपग्रह ( सहकारी कारण) कारणके अभावसे लोकान्तसे वह जीवकी गति ऐसे नहीं होती जैसे जलमें ऊर्ध्व तलसे परे अलाबू (तितलौकी वा तुंबेके फल ) की गति न अधोभागमें हो न तिर्यग् भागमें, यह सब विषय पूर्वप्रसङ्गमें कह चुके हैं; किन्तु उसी लोकान्तमें यह मुक्त जीव अनुश्रेणि गतिसे निःक्रिय (कर्मरहित) होकर स्थित रहता है ॥ ६ ॥
क्षेत्रकालगतिलिङ्गतीर्थचारित्रप्रत्येकबुद्धबोधितज्ञानावगाहनान्तरसंख्याल्पबहुत्वतः साध्याः ॥७॥
क्षेत्रं कालः गतिः लिङ्गं तीर्थ चारित्रं प्रत्येकबुद्धबोधितः ज्ञानमवगाहना अन्तरं संख्या अल्पबहुत्वमित्येतानि द्वादशानुयोगद्वाराणि सिद्धस्य भवन्ति । एभिः सिद्धः साध्योऽनुगम्यश्चिन्त्यो व्याख्येय इत्येकार्थत्वम् । तत्र पूर्वभावप्रज्ञापनीयः प्रत्युत्पन्नभावप्रज्ञापनीयश्च द्वौ नयौ भवतः । तत्कृतोऽनुयो"विशेषः । तद्यथा।
सूत्रार्थ-वि०व्या०-क्षेत्र १ काल २ गति ३ लिङ्ग४ तीर्थ ५ चारित्र ६प्रत्येकबुद्धबोधित ७ ज्ञान ८ अवगाहना ९ अन्तर १० संख्या ११ तथा अल्प बहुत्व ये द्वादश १२ सिद्धके अनुयोग द्वार ( व्याख्याके द्वार ) होते हैं । इन बारह अनुयोग द्वारोंसे सिद्ध साध्य ( साधने योग्य ), अनुगम्य (जानने योग्य ), चिन्त्य (विचारके योग्य) तथा व्याख्येय (व्याख्या करने योग्य ) होता है यह सब एकार्थवाचक शब्द हैं । उसमें पूर्व भाव प्रज्ञापनीय (पूर्व कालके भाव जताने योग्य ) तथा प्रत्युत्पन्नभावप्रज्ञापनीय (वर्तमान समयमें उत्पन्न भाव जताने योग्य ) ये दो नय होते हैं । उन दोनों नयोंसे किया हुआ अनुयोग विशेष होता है। जैसे:
क्षेत्रम् । कस्मिन् क्षेत्रे सिद्ध्यतीति । प्रत्युत्पन्नभावप्रज्ञापनीयं प्रति सिद्धिक्षेत्रे सिद्ध्यति। पूर्वभावप्रज्ञापनीयस्य जन्म प्रतिपञ्चदशसु कर्मभूमिषु जातः सिद्ध्यति । संहरणं प्रति मानुषक्षेत्रे सिद्ध्यति । तत्र प्रमत्तसंयताः संयतासंयताश्च संहियन्ते । श्रमण्यपगतवेदः परिहारविशुद्धिसंयतः पुलाकोऽप्रमत्तश्चतुर्दशपूर्वी आहारकशरीरीति न संहियन्ते । ऋजुसूत्रनयः शब्दादयश्व त्रयः प्रत्युत्पन्नभावप्रज्ञापनीयाः शेषा नया उभयभावं प्रज्ञापयन्तीति ।।
क्षेत्र (के विषयमें)। किस क्षेत्रमें सिद्ध होता है यह; प्रत्युत्पन्नभावज्ञापनीय नयके प्रति
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