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________________ सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । २२९ असङ्गत्वात् । पुद्गलानां जीवानां च गतिमत्त्वमुक्तं नान्येषां द्रव्याणाम् । तत्राधोगौरवधमणः पुद्गला ऊर्ध्वगौरवधर्माणो जीवाः । एष स्वभावः । अतोऽन्यासङ्गादिजनिता गतिर्भवति । यथा सत्स्वपि प्रयोगादिषु गतिकारणेषु जातिनियमेनाधस्तिर्यगूर्ध्व च स्वाभाविक्यो लोष्टवाय्वनीनां गतयो दृष्टाः तथा सङ्गविनिर्मुक्तस्योर्ध्वगौरवादूर्ध्वमेव सिध्यमानगतिर्भवति । संसारिणस्तु ।। कर्मसङ्गादधस्तिर्यगूर्ध्व च ॥ किं चान्यत् । असङ्गत्वात्ः–असङ्ग होनेसे भी मुक्त जीवकी ऊर्ध्व गति होती है । जैसे पुद्गलोंको तथा जीवोंको गतिमत्त्व अर्थात् गतिवाले कहा है, न कि अन्य द्रव्योंको । उन दोनों द्रव्योंमें भी अधोभागमें गौरव धर्म धारण करनेवाले पुद्गल द्रव्य होते हैं, और ऊर्ध्व भागमें गौरव धर्म धारण करनेवाले जीव द्रव्य होते हैं । यह इन द्रव्यों का स्वभाव है । इससे अन्य अर्थात् विपरीत गति जैसे जीवोंकी अधोभागादिमें तथा पुद्गलोंकी ऊर्ध्वादि भागमें गति सङ्ग आदि निमित्तसे उत्पन्न होती है । जैसे गतिके कारण भूत प्रयोग पुरुषप्रयत्न, अथवा व्यापार आदि विद्यमान रहते भी पाषाण, वायु, तथा अग्निकी स्वाभाविक गति, क्रमशः अधोभाग, तिर्यग् भाग, तथा ऊर्ध्व भागमेंही दृष्ट है, अर्थात् पाषाणकी स्वाभाविक गति अधोभागमें, वायुकी तिर्यक् (तिरछे ) भागमें और अग्निकी ऊर्ध्व भागमें गतिका दृष्ट है। ऐसेही सङ्गसे विनिर्मुक्त जीवकी भी ऊर्ध्व भागमें गौरव धर्म धारण करनेसे ऊपर की ही और स्वाभाविक सिद्ध्यमान गति होती है । और संसारी जीवकी तो कर्मोंके सङ्गसे अधोभाग, तिर्यग्भाग तथा ऊर्ध्व भागमें भी गति होती है । तथा इसके अतिरिक्त ऊर्ध्वगतिमें अन्य भी हेतु है: I बन्धच्छेदात् । यथा रज्जुबन्धच्छेदात्पेडाया बीजकोशबन्धनच्छेदाच्चै रण्डबीजानां गतिर्दृष्टा तथा कर्मबन्धनच्छेदात्सिध्यमानगतिः । किं चान्यत् । बन्धच्छेदात्-बन्धके छेदसे मुक्त जीवकी ऊर्ध्व गति होती है । जैसे रज्जुके बन्धनके उच्छेदसे पेडाकी, तथा बीजकोश (जिस गुच्छ रूप कोशमें बीजबन्ध रहते हैं उस एरण्डफल ) रूप बन्धके उच्छेद होनेपर अर्थात् कोशरूप बन्धन के टूटनेपर एरण्ड ( अंडी वा रेड़ी) के बीजोंकी गति स्वाभाविक दृष्ट है, ऐसेही कर्मरूप बन्धन के छेद ( नाश ) होनेपर मुक्त जीवकी भी स्वाभाविक सिद्ध्यमान ऊर्ध्व गति होती है । और इसके शिवाय अन्य भी ऊर्ध्व गतिमें हेतु है:- 1 1 तथागतिपरिणामाच्च । ऊर्ध्वगौरवात्पूर्व प्रयोगादिभ्यश्च हेतुभ्यः तथास्य गतिपरिणाम उत्पद्यते येन सिध्यमानगतिर्भवति । ऊर्ध्वमेव भवति नाधस्तिर्यग्वा गौरवप्रयोगपरिणामासङ्गयोगाभावात् । तद्यथा । गुणवद्भूमिभागारोपितमृतुकालजातं बीजोद्भेदादङ्कुरप्रवालपर्णपुष्पफलकालेष्वविमानित सेक दौर्हृदादिपोषणकर्मपरिणतं कालच्छिन्नं शुष्कमलाब्वप्सु न निमज्जति तदेव गुरुकृष्णमृत्तिकालेपैर्धनैर्बहुभिरालिप्तं धनमृत्तिकालेपवेष्टन जनितागन्तुकगौरवमप्सु प्रक्षिप्तं तज्जलप्रतिष्ठं भवति यदा त्वस्याद्भिः किन्नो मृत्तिकालेपो व्यपगतो भवति तदा Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004021
Book TitleSabhashya Tattvarthadhigam Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorThakurprasad Sharma
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages276
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size6 MB
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