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________________ २२८ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् केवल ज्ञान, केवल दर्शन, और सिद्धत्वके शिवाय, अर्थात् इनको छोड़कर । क्योंकि ये इसके क्षायिक होते हैं, और नित्य तो मुक्त जीवके भी ये होते हैं ॥ ४ ॥ तदनन्तरमूर्ध्व गच्छत्यालोकान्तात् ॥५॥ भाष्यम्-तदनन्तरमिति कृत्स्नकर्मक्षयानन्तरमौपशमिकाद्यभावानन्तरं चेत्यर्थः । मुक्त ऊर्ध्व गच्छत्यालोकान्तात् । कर्मक्षये देहवियोगसिध्यमानगतिलोकान्तप्राप्तयोऽस्य युगपदेकसमयेन भवन्ति । तद्यथा । प्रयोगपरिणामादिसमुत्थस्य गतिकर्मण उत्पत्तिकार्यारम्भविनाशा युगपदेकसमयेन भवन्ति तद्वत् ॥ ___ उन सब कर्मोंके क्षयके अनन्तर, और औपशमिक आदि भावोंके नाशके अनन्तर यह मुक्त जीव लोकान्तपर्यन्त ऊर्ध्व गमन करता है । क्योंकि कर्मोंके क्षयके पश्चात् देहवियोग, सिध्यमान गति और लोकान्तप्राप्ति ये सब इस मुक्त जीवको एकही कालमें होती हैं । जैसे किसी प्रयोगके परिणामसे उत्पन्न जो गति कर्म है उसकी उत्पत्ति, कार्यारम्भ तथा विनाश एक साथही एक समयमेंही होते हैं, ऐसेही मुक्त जीवके भी देहवियोग सिध्यमान गति आदि भी एक साथही होती हैं ॥५॥ अत्राह । प्रहीणकर्मणो निरास्रवस्य कथं गतिर्भवतीति । अत्रोच्यते--- अब यहांपर कहते हैं कि जिसके संपूर्ण कर्म क्षीण हो गये हैं ऐसे, प्राण व ( कर्मोंके. आगमनद्वार ) से रहित मुक्त जीवकी ऊर्ध्व गति कैसे होती है ? इस शङ्काके उत्तरमें आगेका सूत्र कहते हैं: पूर्वप्रयोगादसङ्गत्वाइन्धच्छेदात्तथागतिपरिणामाच तद्गतिः ॥ ६॥ भाष्यम्-पूर्वप्रयोगात् । यथा हस्तदण्डचक्रसंयुक्तसंयोगात्पुरुषप्रयत्नतश्चाविद्धं कुलालचकमुपरतेष्वपि पुरुषप्रयत्नहस्तदण्डचक्रसंयोगेषु पूर्वप्रयोगाद्धमत्येवासंस्कारपरिक्षयात् एवं यः पूर्वमस्य कर्मणा प्रयोगो जनितः स क्षीणेऽपि कर्मणि गतिहेतुर्भवति । तत्कृता गतिः ।। किं चान्यत् ॥ सूत्रार्थ-वि०व्या०-'पूर्वप्रयोगात्' जैसे हस्त (हाथ), दण्ड, और चक्र ( कुंभारके बर्तन बनानेकी चाक ) इन तीनों के मिलित संयोगसे और पुरुषके प्रयत्न अर्थात् पुरुषके व्यापारसे व्याप्त (पूर्ण वा युक्त) जो कुंभारका चक्र (चाक) है पुरुषके व्यापारके निवृत्त होनेपर भी पुरुषके व्यापार, हाथ, दण्ड, तथा चक्रके संयोगमें प्रथमके व्यापारसे वह चक्र भ्रमण करता ही रहता है; जब तक कि उसमें पुरुषके प्रथम प्रयोग ( व्यापार ) का संस्कार है, तब तक वह बन्द नहीं होता, ऐसेही जो इस जीवके कर्मोंका प्रयोग अर्थात् व्यापार वा प्रयत्न उत्पन्न हुआ है वह कर्मके क्षीण होनेपर भी गतिका निमित्त होता है; इसीसे अर्थात् कर्मोंके पूर्व उत्पन्न प्रयोगसे इस मुक्त जीवकी ऊर्ध्व गति होती है ॥ और इसके अतिरिक्त ( शिवाय ) अन्य हेतु भी है: Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004021
Book TitleSabhashya Tattvarthadhigam Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorThakurprasad Sharma
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages276
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size6 MB
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