________________
८२
रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् उत्तरकी ओर उत्तरकुरु हैं, किन्तु वे चित्रकूट तथा विचित्रकूटोंसे हीन हैं, परन्तु काश्चनमय यमक नाम दो पर्वतोंसे वे उत्तरकुरु शोभित हैं।
विदेहा मन्दरदेवकुरूत्तरकुरुभिर्विभक्ताः क्षेत्रान्तरवद्भवन्ति । पूर्वे चापरे च । पूर्वेषु षोडश चक्रवर्तिविजया नदीपर्वतविभक्ताः परस्परागमाः अपरेऽप्येवलक्षणाः षोडशैव ॥
मन्दर, देवकुरु, तथा उत्तर कुरुओंसे अन्य क्षेत्रोंके सदृश विदेह भी विभक्त ( पृथक् किये हुए ) हैं । और उनकी पूर्वविदेह तथा अपरविदेह ऐसी संज्ञा हैं । पूर्वमें सोलह विदेह हैं, जो कि चक्रवर्तीविजय तथा नदी और पवतोंसे विभक्त परस्पर हैं । और अपर विदेह भी इसीप्रकार लक्षणयुक्त सोलह ही हैं।
तुल्यायामविष्कम्भावगाहोच्छ्रायौ दक्षिणोत्तरौ वैताढ्यौ तथा हिमवच्छिखरिणौ महाहिमवद्रुक्मिणौ निषधनीलौ चेति ॥
दक्षिण तथा उत्तरके वैताढ्य विस्तार, विष्कंभ, अवगाह तथा उंचाईमें समान हैं। ऐसे ही हिमवत् और शिखरी समान हैं । महाहिमवत् और रुक्मी समान हैं, तथा निषध और नील समान हैं।
क्षुद्रमन्दरास्तु चत्वारोऽपि धातकीखण्डकपुष्कराधका महामन्दरात्पञ्चदशभिर्योजनसहनैीनोच्छ्रायाः । षनिर्योजनशतैर्धरणितले हीनविष्कम्भाः । तेषां प्रथमं काण्डं महामन्दरतुल्यम् । द्वितीय सप्तभित्नम् । तृतीयमष्टाभिः। भद्रशालनन्दनवने महामन्दरवत् । ततो अर्धषटूपञ्चाशद्योजनसहस्राणि सौमनसं पञ्चशतं विस्तृतम् । ततोऽष्टाविंशतिसहस्राणिचतुनवति चतुःशत विस्तृतमेव पाण्डकं भवति । उपरि चाधश्च विष्कम्भोऽवगाहश्च तुल्यो महामन्दरेण । चूलिका चेति ॥ __ और चारों क्षुद्रमन्दर, धातकीखण्डक और पुष्करार्धक अर्थात् धातकीखण्ड तथा पुष्करार्धमे होनेवाले, महामन्दरसे पन्द्रहसहस्र योजन न्यून ऊंचे हैं । और छहसौ योजन धरणीतलमें भी न्यून विष्कंभ हैं । उन क्षुद्रमन्दरोंका प्रथमकांड महामंदरके तुल्य है । द्वितीयकांड सातसे न्यून है । और तृतीयकांड आठसे हीन है । भद्रशाल तथा नन्दनवन महामन्दरके समान हैं । उसके पश्चात् साढ़े छप्पन हजार योजन लम्बा तथा पांचसौ योजन विस्तृत सौमनसवन है । और उसके अनन्तर अट्ठाईस हजार योजन लम्बा और चारसौ चौरानवे योजन विस्तृत (चौड़ा) पाण्डकवन है । इसका ऊपर तथा नीचेका विष्कंभ और अवगाह भी महामन्दरके तुल्य है । और चूलिका भी उसीके समान है। __विष्कम्भकृतेर्दशगुणाया मूलं वृत्तपरिक्षेपः । स विष्कम्भपादाभ्यस्तो गणितम् । इच्छावगाहोनावगाहाभ्यस्तस्य विष्कम्भस्य चतुर्गुणस्य मूलं ज्या । ज्याविष्कम्भयोर्वर्गविशेषमूलं विष्कम्भाच्छोध्यं शेषार्धमिषुः । इषुवर्गस्य षड्गुणस्य ज्यावर्गयुतस्य कृतस्य मूलं धनुःकाष्ठम् । ज्यावर्गचतुर्भागयुक्तमिषुवर्गमिषुविभक्तं तत्प्रकृतिवृत्तविष्कम्भः । उदग्धनुःकाष्ठादक्षिणं शोध्यं शेषाधै बाहुरिति ॥
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org