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सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । विष्कंभकृत दशगुणका मूल वृत्तपरिक्षेप है; और वह वृत्तपरिक्षेप विष्कंभपादाभ्यस्त गणित है । इच्छावगाह ऊनावगाहाभ्यस्त चतुर्गुण विष्कंभका मूल ज्या है । ज्या और विष्कंभका वर्ग विशेष मूल विष्कंभसे शोधनीय है । शेषार्ध इषु है । षड्गुण ज्या वर्गयुक्त इषु वर्गकृतका षड्गुणमूल धनुःकाष्ठ है । और ज्या वर्गका चतुर्भागयुक्त और इषुसे विभक्त जो इषु वर्ग है, वह प्रकृतिवृत्त विष्कंभ है । और उदग्धनुःकाष्ठसे दक्षिण शोधनीय है । और शेषार्थ बाहु है ।
अनेन करणाभ्युपायेन सर्वक्षेत्राणां सर्वपर्वतानामायामविष्कम्भज्येषुधनुःकाष्ठपरिमाणानि ज्ञातव्यानि ॥
इस कारणरूप उपायसे सब क्षेत्रोंके तथा सब पर्वतोंके आयाम, विष्कंभ, ज्या, इषु, और धनुःकाष्ठ रूप परिमाण जानने चाहिये।
द्विर्धातकीखण्डे ॥१२॥ सूत्रार्थ:-जम्बूद्वीपमें जो मन्दर तथा वंशधर पर्वतादि कहे हैं, वे सब धातकी खण्डमें द्विगुण २ हैं।
भाष्यम्-एते मन्दरवंशवर्षधरा जम्बूद्वीपेऽभिहिता एते द्विगुणा धातकीखण्डे द्वाभ्यामिष्वाकरपर्वताभ्यां दक्षिणोत्तरायताभ्यां विभक्ताः । एभिरेव नामभिर्जम्बूद्वीपकसमसङ्ख्याः पूर्वार्धे चापरार्धे च चक्रारकसंस्थिता निषधसमोछायाः कालोदलवणजलस्पर्शिनो वंशधराः सेष्वाकाराः । अरविवरसंस्थिता वंशा इति ॥
विशेषव्याख्या-जम्बूद्वीपमें जो मन्दर तथा वर्षधरपर्वतादि कथन किये हैं, वे सब धातकीखण्डमें दक्षिणसे उत्तरकी ओर लम्बायमान् दो इषुके आकारवाले इष्वाकार पर्वतोंसे विभक्त द्विगुण हैं । तथा धातकीखण्डके पूर्वार्द्ध और अपरार्द्धमें भी इन्हीं पूर्वोक्त नामोंसे संयुक्त, जम्बूद्वीपके समान संख्यायुक्त, चक्रमें (पहियेमें) आरकके समान स्थित, निषधपर्वतके तुल्य ऊंचे, कालोद और लवणसमुद्रके जलको स्पर्श करनेवाले, अर्थात् कालोदसे लवणसमुद्र तक विस्तृत, और इष्वाकार ये वंशधरपर्वत हैं। अरोके विवरोंमें (छिद्रोंमें) स्थितके समान हैं, इस कारणसे ये वंश कहे जाते हैं ॥१२॥
१ ये गणितके पारिभाषिक शब्द हैं, हमारी समझमें पूर्णरूपसे नहीं आये।।
२ इस विषयमें बहुतसे विद्वान् स्वयं और भी अनेक सूत्रोंकी रचना करके उनका व्याख्यान करते हैं। विस्तार न हो, इसलिये आचार्यने संक्षेपसे यह तत्त्व संग्रह किया है, और इसी हेतुसे शास्त्रनिपुण जन विस्ताररूपसे जो सूत्रोंका कथन है। वह प्राचीन नहीं है, ऐसा कहते हैं । और विस्तार ही इष्ट है, तो लक्ष ग्रन्थकी, परिभाषारूपसे जम्बूद्वीपका विस्तार करें, तो भी क्या विस्तार हुआ? अर्थात् कुछ नहीं । अथवा विस्तारार्थीको उन आचार्योंके रचित सूत्रोंसे बहुत गुणयुक्त सिद्धान्त क्या निकल आता है ? इस हेतु उनका
अभिप्राय उपेक्षाके योग्य है। Jain Education International
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