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________________ ८ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् पुष्करार्धे च ॥१३॥ सूत्रार्थ:-जैसे धातकीखण्डमें मन्दरादिकोंकी संख्यादि विषय कहे, वैसे ही पुष्करार्धमें भी समझना चाहिये। भाष्यम् –यश्च धातकीखण्डे मन्दरादीनां सेष्वाकारपर्वतानां सङ्खयाविषयनियमः स एव पुष्करार्धे वेदितव्यः॥ विशेषव्याख्या-मन्दरादि तथा इषुके आकारसहित वर्षधरपर्वतोंका जो द्विगुण संख्यादिका नियम वर्णन किया है, वही नियम पुष्करार्द्ध द्वीपमें जानना चाहिये। ततः परं मानुषोत्तरो नाम पर्वतो मानुषलोकपरिक्षेपी सुनगरप्राकारवृत्तः पुष्करवरद्वीपार्धविनिविष्टः काञ्चनमयः सप्तदशैकविंशतियोजनशतान्युच्छ्रितश्चत्वारि त्रिंशानि क्रोशं चाधो धरणीतलमवगाढो योजनसहस्रं द्वाविंशमधस्ताद्विस्तृतः सप्तशतानि त्रयोविंशानि मध्ये चत्वारि चतुर्विशान्युपरीति ॥ __उसके अनन्तर मानुषोत्तर पर्वत है, जो कि मनुष्य लोकको घेरे हुए है, तथा उत्तम नगरके प्राकार (कोट )के सदृश वृत्ताकार, पुष्कराध द्वीपमें प्रविष्ट, सुवर्णमय, सत्रह सौ इक्कीस योजन उंचा, एक कोस अधिक चारसौ तीस (तेतीस) योजन पृथ्वीके अधो भागमें नीचा, एक हजार बाईस योजन नीचेके अर्थात् मूलके विस्तारसहित और सातसौ तेईस योजन मध्यभागमें और चारसौ चोवीस योजन उपरिभागमें ऐसा मानुषोत्तर पर्वत है। न कदाचिदस्मात्परतो जन्मतः संहरणतो वा चारणविद्याधरर्द्धिप्राप्ता अपि मनुष्या भूतपूर्वा भवन्ति भविष्यन्ति च । अन्यत्र समुद्धातोपपाताभ्याम् । अत एव च मानुषोत्तर इत्युच्यते ॥ __ इस मानुषोत्तर पर्वतसे परे कदाचित् भी जन्मसे अथवा संहरणसे चारण विद्याधर, और ऋद्धि प्राप्त मनुष्य पूर्वकालमें न हुए और न होंगे, अर्थात्, इस पर्वतके आगे चारणादि न कभी जन्में न मरे और न जन्मेंगे न मरेंगे । किन्तु यह नियम समुद्धात और उपपातको छोड़के है, अर्थात् समुद्धात और उपपात वाले मानुषोत्तरपर्वतके आगे भी जा सक्ते हैं । इस कारण इसका नाम मानुषोत्तर है । तदेवमड्मिानुषोत्तरस्यार्धतृतीया द्वीपाः समुद्रद्वयं पञ्चमन्दराः पञ्चत्रिंशत्क्षेत्राणि त्रिंशद्वर्षधरपर्वताः पञ्च देवकुरवः पञ्चोत्तराः कुरवः शतं षष्टयधिकं चक्रवार्तविजयानां द्वे शते पञ्चपञ्चाशदधिके जनपदानामन्तरद्वीपाः षट्पञ्चाशदिति ॥ इस रीतिसे मानुषोत्तरपर्वतके पूर्व ढाई द्वीप, दो समुद्र, पांच मन्दर, पैंतीस क्षेत्र, १ जो इस भाष्यको विद्याधर ऋद्धिप्राप्तोंके गमनके निषेधमें लगाते हैं, उनको आगमका विरोध है, क्योंकि सब चारणादि तथा ऋद्धिप्राप्तोंका गमन मानुषोत्तरके आगे भी शास्त्रोंमें कहा है, परन्तु जन्ममरण बाहिर नहीं होता। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004021
Book TitleSabhashya Tattvarthadhigam Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorThakurprasad Sharma
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages276
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size6 MB
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