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________________ ____ सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । २२१ वचनका ग्रहण है, और योगसे "काय-वाग्-मनःकर्म योगः" इस सूत्रमें कथित तीनो योगोंका ग्रहण है, उनकी संक्रान्ति अर्थात् परिवर्तन । इससे यह सिद्ध हुआ कि जिस ध्यानमें द्रव्य वा पर्याय, वचन ( श्रुत ) तथा योगका परिवर्तन होता रहता है वह विचारसहित प्रथम है और यह पूर्वकथित (अर्थव्यञ्जनयोगसंक्रान्ति अर्थात् इनका परिवर्तनरूप ) जो विचार है उस विचारसे रहित अर्थात् अविचार द्वितीय ( एकत्ववितर्क ) रूप शुक्लध्यान है। तदाभ्यन्तरं तपः संवरत्वादभिनवकर्मोपचयप्रतिषेधकं निर्जरणफलत्वात्कर्मनिर्जरकम् । अभिनवकर्मोपचयप्रतिषेधकत्वात्पूर्वोपचितकर्मनिर्जरकत्वाच्च निर्वाणप्रापकमिति ॥ - यह छः प्रकारका आभ्यन्तर तप संवर होनेसे नूतन कर्मोंके संचयका प्रतिषेधक अर्थात् निषेध करनेवाला है तथा कर्मोंकी निर्जरारूप फल देनेसे कर्मोंका निर्जरणकारक अर्थात् कर्मोंका नाशक भी है। और अभिनव अर्थात् नूतन कर्मके उपचय (संचय वा वृद्धि ) का निषेध करनेवाला होनेसे और पूर्वसंचित कर्मोंका निर्जरण (नाशक ) होनेसे निर्वाण अर्थात् मोक्षको प्राप्त करनेवाला भी है ॥ ४६॥ ___ अत्राह । उक्तं भवता परीषहजयात्तपसोऽनुभावतश्च कर्मनिर्जरा भवतीति । तत्कि सर्वे सम्यग्दृष्टयः समनिर्जरा आहोस्विदस्ति कश्चित्प्रतिविशेष इति । अत्रोच्यते।। अब कहते हैं कि प्रथम आपने कहा था कि द्वाविंशति २२ परीषहोंके जयसे तथा तपके अनुभाव (प्रभाव )से कर्मोंकी निर्जरा होती है। सो सब सम्यग्दृष्टिपुरुष समान निर्जरावाले होते हैं, अथवा कोई विशेष है; इस लिये आगेका सूत्र कहते हैं। सम्यग्दृष्टिश्रावकविरतानन्तवियोजकदर्शनमोहक्षपकोपशमकोपशान्तमोहक्षपकक्षीणमोहजिनाः क्रमशोऽसङ्खयेयगुणनिर्जराः॥४७॥ भाष्यम्-सम्यग्दृष्टिः श्रावकः विरतः अनन्तानुबन्धिवियोजकः दर्शनमोहक्षपकः मोहोपशमकः उपशान्तमोहः मोहक्षपकः क्षीणमोहः जिन इत्येते दश क्रमशोऽसङ्खयेयगुणनिर्जरा भवन्ति । तद्यथा । सम्यग्दृष्टेः श्रावकोऽसङ्ख्येयगुणनिर्जरः श्रावकाद्विरतः विरतादनन्तानुबन्धिवियोजक इत्येवं शेषाः ॥ सूत्रार्थ-विशेषव्याख्या-सम्यग्दृष्टि १ श्रावक २ विरत ३ अनन्तानुबन्धिवियोजक ४ दर्शनमोहक्षपक ५ मोहोपशमक ६ उपशान्तमोह ७ मोहक्षपक ८ क्षीणमोह ९ तथा जिन १० ये दशो क्रमसे असंख्येय गुणवाली निर्जराको उत्पन्न करनेवाले होते हैं । जैसे-सम्यग्दृष्टिकी अपेक्षासे श्रावक असंख्येयगुणनिर्जरावाला होता है, श्रावकसे विरत असंख्येय गुणवाली निर्जरासहित होता है; और विरतसे अनन्तानुबन्धिवियोजक असंख्येय-गुण-निर्जरासहित होता है । ऐसेही आगे जिनपर्यन्त समझ लेना ॥ १७ ॥ पुलाकबकुशकुशील निर्ग्रन्थलातका निर्ग्रन्थाः ॥४८॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004021
Book TitleSabhashya Tattvarthadhigam Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorThakurprasad Sharma
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages276
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size6 MB
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