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सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् ।
विग्रहगतौ कर्मयोगः ॥२६॥ सूत्रार्थ:-विग्रहगतिमें कर्मयोग होता है।
भाष्यम्-विग्रहगतिसमापन्नस्य जीवस्य कर्मकृत एव योगो भवति । कर्मशरीरयोग इत्यर्थः । अन्यत्र तु यथोक्तः कायवाङ्मनोयोग इत्यर्थः ॥
विशेषव्याख्या-विग्रह गतिमें प्राप्त जो जीव हैं, अर्थात् जीव जब एक शरीरसे अन्य शरीरकेलिये गतिमें समापन्न है, तब इसको कर्मकृत ही योग अर्थात् कार्माण सरीर ही योग होता है । और विग्रहगतिसे अन्यत्र तो काय, वाक् और मनका योग होता है ॥ २६॥
अनुश्रेणि गतिः ॥ २७॥ सूत्रार्थ:-जीवोंकी गति श्रेणीके अनुसार होती है। भाष्यम–सर्वा गतिर्जीवानां पुद्गलानां चाकाशप्रदेशानुश्रेणि भवति विश्रेणिर्न भवतीति गतिनियम इति ।
विशेषव्याख्या-जीव तथा पुद्गलोंकी सम्पूर्ण गति आकाशप्रदेशकी श्रेणीके अनुसार ही होती है । श्रेणीके विरुद्ध नहीं होती । यह गतिका नियम है ॥ २७ ॥
अविग्रहा जीवस्य ॥ २८ ॥ सूत्रार्थ:-जीवकी अविग्रहगति होती है । भाष्यम-सिध्यमानगतिर्जीवस्य नियतमविग्रहा भवतीति ।
विशेषव्याख्या-जीवकी जो सिध्यमान गति है, वह नियमपूर्वक अविग्रह अर्थात् कुटिलता रहित होती है ॥ २८ ॥
विग्रहवती च संसारिणः प्राक् चतुभ्यः ॥ २९॥ सूत्रार्थः-अन्य जातिमें संक्रमण करनेमें संसारी जीवकी गति चार समयके पहिले विग्रहवती तथा अविग्रहा भी होती है।
भाष्यम-जात्यन्तरसंक्रान्तौ संसारिणो जीवस्य विग्रहवती चाविग्रहा च गतिर्भवति उपपातक्षेत्रवशात् । तिर्यगूर्वमधश्च प्राक् चतुर्थ्य इति । येषां विग्रहवती तेषां विग्रहाः प्राक चतुर्यो भवन्ति । अविग्रहा एकविग्रहा द्विविग्रहा त्रिविग्रहा इत्येताश्चतुःसमयपराश्चतुर्विधा गतयो भवन्ति । परतो न संभवन्ति । प्रतिघाताभावाद्विग्रहनिमित्ताभावाच । विग्रहो वक्रितं विग्रहोऽवग्रहः श्रेण्यन्तरसंक्रान्तिरित्यनर्थान्तरम् । पुद्गलानामप्येवमेव ॥
विशेषव्याख्या-जिस समय संसारी जीव एक जातिके शरीरको त्यागकर अन्य जातिके शरीर आदिमें संक्रमण करने लगता है, उस समय चतुर्थ समयके पूर्व विग्रहवती गति होती ह । उपपात क्षेत्रके (जन्मस्थानके)वशसे तिर्यक् (तिरछा) उर्द्ध, तथा अधोभागमें गति
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