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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् होती है । “प्राक् चतुर्यः" इसका यह तात्पर्य है कि जिनकी विग्रहवती गति होती है, उनके विग्रहचतुर्थ समयके पूर्व ही होते हैं। अविग्रहा अर्थात् विग्रहशून्य, एकविग्रहा (एक विग्रहवाली ) द्विविग्रहा (दो विग्रहवाली ) तथा त्रिविग्रहा (तीन विग्रहवाली) ये सब 'चतुःसमयपरा' चार प्रकारकी जीवकी गति होती हैं । चतुर्थ समयके आगे विग्रहवती गति नहीं होती। इसके परे उस प्रकारकी गतिका संभव ही नहीं है । क्योंकि आगे प्रतिघातका अभाव है और विग्रहके निमित्तका भी अभाव है । यहांपर विग्रहका अर्थ वक्रित ( टेढा ) है। विग्रह, अवग्रह, श्रेण्यन्तरसंक्रान्ति अर्थात् सरलश्रेणीको त्यागके वक्रश्रेणीसे गमनये सब एकार्थवाचक शब्द हैं । संसारी जीवोंके समान पुद्गलोंकी भी इसी प्रकारकी गति होती है ॥ २९॥ __ शरीरिणां च जीवानां विग्रहवती चाविग्रहवती च प्रयोगपरिणामवशात् । न तु तत्र विग्रहनियम इति ।।
शरीरधारी जीवोंकी विग्रहवती तथा अविग्रहा दोनों प्रकारकी गति प्रयोगके परिणामवशसे होती है; वहांपर विग्रहका नियम नहीं है, किन्तु प्रयोगके परिणामके आधीन है ।
अत्राह । अथ विग्रहस्य किं परिमाणमिति । अत्रोच्यते । क्षेत्रतो भाज्यम् । कालतस्तु
अब कहते हैं कि विग्रहका क्या परिणाम है ? इसपर कहते हैं कि क्षेत्रकी अपेक्षासे भाज्य (प्राप्य ) है । और कालसे तो
एकसमयोऽविग्रहः ॥ ३० ॥ सूत्रार्थ:-विग्रहरहित गति एक ही समयमें होती है। भाष्यम्-एकसमयोऽविग्रहो भवति । अविग्रहा गतिरालोकान्तादप्येकेन समयेन भवति । एकविग्रहा द्वाभ्याम् । द्विविग्रहा त्रिभिः । त्रिविग्रहा चतुर्भिरिति । अत्र भङ्गप्ररूपणा कार्येति ॥
विशेषव्याख्या-विग्रहशून्यगति लोकके अन्ततक एक ही समयमें होती है । और जिसमें एक विग्रह हो वह गति दो समयोंसे, जिसमें दो विग्रह हों वह तीन समयोंसे होती है, और जिसमें तीन विग्रह गति हों वह चार समयोंके द्वारा होती है। यहांपर भंगरूपसे निरूपण करना चाहिये । अर्थात् विग्रह रहित तो एक समयसे होती है, और एक आदि विग्रहवाली दो आदि समयोंसे, इत्यादि ॥ ३० ॥
एकं द्वौ वानाहारकः ॥ ३१॥ सूत्रार्थः-एक वा दो समयतक जीव अनाहारक रहता है। भाष्यम्-विग्रहगतिसमापन्नो जीव एकं वा समयं द्वौ वा समयावनाहारको भवति । शेष कालमनुसमयमाहारयति । कथमेकं द्वौ वानाहारको न बहूनीत्यत्र भङ्गप्ररूपणा कार्या ।। विशेषव्याख्या-विग्रह गतिमें संप्राप्त जो जीव है, वह एक अथवा दो समयतक
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