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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् विशेषव्याख्या-कृमि आदि अर्थात् कृमित्व जाति सहित जीवोंकी स्पर्शनसे अधिक एक रसन इन्द्रिय और है । जैसे अपादिक (पादरहित), नपुरक (कृमिविशेष), गण्डूपद (केंचुआ), शंख, शुक्तिका (सीपविशेष ), शम्बूका (घोंघा), जलोका ( जोंक ) आदि कृमियोंके पृथिवी आदिसे एक इन्द्रिय अधिक है । अर्थात् इनको स्पर्शन और रसन ये दो इन्द्रियां हैं । और कृमिआदिसे भी एक अधिक पिपीलिका आदिके हैं । पिपीलिका आदि शब्दसे जैसे,:-रोहिणिका, उपचिका ( दीमक ), कुन्थु, तुंबुरुक, त्रिपुसबीज, कर्पासास्थिका, शतपद्युत्पतक, तृणपत्र, और काष्ठहारक आदि गृहीत हैं। इनके तीन अर्थात् स्पर्शन, रसन, और घ्राण इन्द्रिय है । और उन पिपीलिकादिसे भी भ्रमर, वटर, सारङ्ग, मक्षिका, पुत्तिका, दंश, मशक, वृश्चिक, नन्द्यावर्त, कीट और पतङ्गादिके एक अधिक अर्थात् चार इन्द्रिय स्पर्शन, रसन, घ्राण तथा चक्षु हैं । और उनसे भी अधिक शेष तिर्यग्रयोनिवाले मत्स्य, भुजङ्ग, पक्षी, चतुष्पदपशु और नारक, मनुष्य तथा देव आदिके पांचों इन्द्रियां अर्थात् स्पर्शन, रसन, प्राण, चक्षुः और श्रोत्र होती हैं ॥ २४ ॥
अत्राह । उक्तं भवता द्विविधा जीवाः । समनस्का अमनस्काश्चेति । तत्र के समनस्का इति । अत्रोच्यते--
यहांपर कहते हैं, कि आपने समनस्क तथा अमनस्क भेदसे दो प्रकारके जीव कहे हैं, उनमेंसे समनस्क कौन हैं ? यह बतलानेकेलिये अग्रिमसूत्र कहते हैं
संज्ञिनः समनस्काः ॥ २५ ॥ सूत्रार्थ:--संज्ञी जीव समनस्क हैं। भाष्यम्-संप्रधारणसंज्ञायां संज्ञिनो जीवाः समनस्का भवन्ति । सर्वे नारकदेवा गर्भव्युत्क्रान्तयश्च मनुष्यास्तिर्यग्योनिजाश्च केचित् ॥ ईहोपोहयुक्ता गुणदोषविचारणात्मिका संप्रधारणसंज्ञा । तां प्रति संज्ञिनो विवक्षिताः । अन्यथा ह्याहारभयमैथुनपरिग्रहसंज्ञाभिः सर्व एव जीवाः संज्ञिन इति ॥
विशेषव्याख्या-संप्रधारणसंज्ञाके होनेपर जो संज्ञी जीव हैं, वे ही समनस्क हैं । अर्थात् संप्रधारणस्वरूप जो संज्ञा है उस संज्ञाके होनेसे जो संज्ञी (संज्ञा ज्ञान रखनेवाले) हैं, वे ही समनस्क अर्थात् मनसहित हैं । सम्पूर्ण नारक ( नरकके जीव ) देव, गर्भसे बहिर्गत मनुष्य, तथा कोई २ तिर्यग्योनिसे उत्पन्न जीव संज्ञी होनेसे समनस्क हैं । यहांपर ईहा तथा अपोहसे युक्त अर्थात् गहन वा गूढ विषयोंमें कल्पनाशक्तिसे युक्त गुण
और दोषके विचारणस्वरूप जो ज्ञानरूपशक्तिविशेष है; वही संप्रधारण रूप संज्ञा है । उसी संज्ञाके प्रति यहां संज्ञीपदसे विवक्षित हैं । अन्यथा आहार, भय, मैथुन तथा परिग्रहरूप संज्ञाओंसे सब ही जीव संज्ञी हो सक्ते हैं ॥ २५ ॥ .
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