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सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् ।
२३ च । अवधिज्ञानावरणीयस्य कर्मणः क्षयोपशमाभ्यां भवति षद्धिधम् । तद्यथा अनानुगामिकं आनुगामिकं हीयमानकं वर्धमानकं अनवस्थितं अवस्थितमिति । तत्रानानुगामिकं यत्र क्षेत्रे स्थितस्योत्पन्नं ततः प्रच्युतस्य प्रतिपतति प्रश्नादेशपुरुषज्ञानवत् ॥ आनुगामिकं यत्र कचिदुत्पन्नं क्षेत्रान्तरगतस्यापि न प्रतिपतति भास्करप्रकाशवत् घटरक्तभाववञ्च ॥ हीयमानकं असंख्येयेषु द्वीपेषु समुद्रेषु पृथिवीषु विमानेषु तिर्यगूर्ध्वमधो यदुत्पन्नं क्रमशः संक्षिप्यमाणं प्रतिपतति आ अङ्गुलासंख्येयभागात् प्रतिपतत्येव वा परिच्छिन्नेन्धनोपादानसंतत्यग्निशिखावत् ॥ वर्धमानकं यदङ्गुलस्यासंख्येयभागादिषूत्पन्नं वर्धते आ सर्वलोकात् अधरोत्तरारणिनिमथनोत्पन्नोपात्तशुष्कोपचीयमानाधीयमानेन्धनराश्यग्निवत् ॥ अनवस्थितं हीयते वर्धते च वर्धते हीयते च प्रतिपतति चोत्पद्यते चेति पुनः पुनरूमिवत् ॥ अवस्थितं यावति क्षेत्रे उत्पन्नं भवति ततो न प्रतिपतत्या केवलप्राप्तेः आ भवक्षयाद्वा जात्यन्तरस्थायि वा भवति लिङ्गवत् ॥
विशेष व्याख्या-पूर्व प्रसंगमें जो क्षयोपशमनिमित्त कहा है उस यथोक्त निमित्तसे उत्पन्न तथा आनुगामिक आदि भेद सहित अवधिज्ञान देव तथा नारकियोंसे शेष जो तिर्यग्योनिज और मनुष्य हैं, उनको होता है । अवधिज्ञानावरणीयकर्मके क्षय तथा उपशमसे जो अवधिज्ञान होता है, वह षडिकल्प है, अर्थात् उसके छह भेद हैं । जैसे १ अनानुगामिक, २ आनुगामिक, ३ हीयमान, ४ व मानक, ५ अनवस्थित और अवस्थित । इनमेंसे अनानुगामिक अवधिज्ञान वह हैं, कि जो जिसक्षेत्रमें स्थित पुरुषको उत्पन्न होता है, उस क्षेत्रसे जब वह पुरुष च्युत होता है अर्थात् गिरता है, तब उसका वह अवधिज्ञान भी गिर जाता है, उसके साथ ऐसा नहीं जाता जैसे प्रधान पुरुषनिष्ठज्ञान. अर्थात् जैसे निमित्तज्ञानी किसी स्थानविशेषमें ही किसी पुरुषमें ज्ञान प्राप्त कर सक्ता है न कि सर्वत्र और सो भी पृष्ट अर्थको ही कह सक्ता है । और आनुगामिक व अनुगामी अवधिज्ञान वह है, कि जो किसी क्षेत्रमें किसी पुरुषको उत्पन्न हुआ उससे अन्यक्षेत्रमें जानेपर भी उस पुरुषसे ऐसे पतित नहीं होता जैसे सूर्यका प्रकाश घटादिका रक्तभाव । हीयमान अवधिज्ञान वह है, जो कि असंख्यातद्वीप समुद्रोंमें, पृथ्वीके प्रदेशोंमें, विमानोंमें तथा तिर्यक् (तिरछे) ऊर्द्ध व अधोभागमें उत्पन्न हुआ है, वह क्रमसे संक्षिप्त होता हुआ यहां तक गिर जाता है वा न्यून हो जाता है, जबतक अंगुलके असंखेय भागको नहीं प्राप्त होता अथवा सर्वथा गिर ही जाता है, जैसे परमित उपादान कारण (ईंधन) वाले अग्निकी शिखा । वर्तमानक अवधिज्ञान वह है, जो कि अंगुलके असंखेय भाग आदिमें उत्पन्न होकर सम्पूर्ण लोकपर्यन्त ऐसे बढता है, जैसे ऊपर नीचेके अरणिके मंथनसे उत्पन्न तथा शुष्क ईंधनकी राशिपर फैंकाहुआ वर्द्धमान अग्नि । अनवस्थित अवधिज्ञान वह है, जो कि तरंगके समान जहांतक उसको बढना चाहिये वहां तक पुनः २ बढता है और छोटा भी यहांतक होता है कि जहांतक उसको छोटा होना चाहिये. इसी
१ काष्ठरचित यंत्रविशेष.
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