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________________ सभाप्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । ३९ सूत्रार्थः—दूसरे अर्थात् क्षायिकके ज्ञान, दर्शन, दान, लाभ, भोग, उपयोग, वीर्य सम्यक्त्व और चारित्र ये नौ भेद हैं । भाष्यम् – ज्ञानं दर्शनं दानं लाभो भोग उपभोगो वीर्यमित्येतानि च सम्यक्त्वचारित्रे च नव क्षायिका भावा भवन्तीति । ज्ञान, दर्शन, दान, लाभ, भोग, उपयोग और वीर्य ये सात तथा च शब्दसे सम्यक्त्व और चारित्र मिलाकर नव प्रकारका क्षायिक भाव होता है, अर्थात् क्षायिक ज्ञान, क्षायिक दर्शन, क्षायिक दान, क्षायिक लाभ, क्षायिक भोग, क्षायिक उपभोग, क्षायिक वीर्य, क्षायिक सम्यक्त्व और क्षायिक चारित्र ॥ ४ ॥ ज्ञानाज्ञानदर्शनदानादिलब्धयश्चतुस्त्रित्रिपञ्चभेदाः सम्यक्त्वचारित्रसंयमासंयमाश्च ॥ ५ ॥ सूत्रार्थ :- चार प्रकारका ज्ञान, तीन प्रकारका अज्ञान, तीन प्रकारका दर्शन और पांच प्रकारकी लब्धि, तथा सम्यक्त्व, चारित्र और संयमासंयम ये अष्टादश भेद क्षायोपशमिक भावके हैं । भाष्यम् –ज्ञानं चतुर्भेदं मतिज्ञानं श्रुतज्ञानमवधिज्ञानं मनः पर्यायज्ञानमिति । अज्ञानं त्रिभेदं मत्यज्ञानं श्रुताज्ञानं विभङ्गज्ञानमिति । दर्शनं त्रिभेदं चक्षुर्दर्शनमचक्षुर्दर्शनमवधिद्र्शनमिति । लब्धयः पञ्चविधा दानलब्धिर्लाभलब्धिर्भोगलब्धिरुपभोगलब्धिर्वीर्यलब्धिरिति । सम्यक्त्वं चारित्रं संयमासंयम इत्येतेऽष्टादश क्षायोपशमिका भावा भवन्तीति । विशेषव्याख्या - मतिज्ञान, श्रतज्ञान, अवधिज्ञान तथा मनःपर्याय ज्ञान ये चार ज्ञान; मत्यज्ञान, श्रुताज्ञान तथा विभंगावधि ये तीन अज्ञान; चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन और अवधिदर्शन ये तीन दर्शन; दानलब्धि, लाभलब्धि, भोगलब्धि, उपभोगलब्धि, तथा वीर्य - लब्धि ये पांच प्रकारकी लब्धि इस प्रकार ज्ञानादि पन्द्रह और सम्यक्त्व, चारित्र, तथा संयमासंयम सब मिलाकर अठारह भेदवाला क्षायोपशमिक भाव है ॥ ५ ॥ गतिकषायलिङ्गमिथ्यादर्शनाज्ञानासंयतासिद्धत्वलेश्याश्चतुश्चतुरूये केके के कषभेदाः ॥ ६ ॥ सूत्रार्थ:-चार गति, चार कषाय, तीन लिङ्ग, मिथ्यादर्शन एक, अज्ञान एक, असंयत एक, असिद्धत्व एक, और लेश्या छह; ये औदयिक भावोंके २१ भेद हैं । भाष्यम्–गतिश्चतुर्भेदा नारकतैर्यग्योनमनुष्यदेवा इति । कषायश्चतुर्भेदः क्रोधी मानी मायी लोभीति । लिङ्गं त्रिभेदं स्त्रीपुमान्नपुंसकमिति । मिथ्यादर्शनमेकभेदं मिध्यादृष्टिरिति । अज्ञानमेकभेदमज्ञानीति । असंयतत्वमेकभेदमसंयतोऽविरत इति । असिद्धत्वमेकभेदमसिद्ध इति । एकभेदमेकविधमिति । लेश्या षट् भेदाः कृष्णलेश्या नीललेश्या कापोतलेश्या तेजोलेश्या पद्मलेश्या शुकुलेश्या । इत्येते एकविंशतिरौदयिकभावा भवन्ति । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004021
Book TitleSabhashya Tattvarthadhigam Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorThakurprasad Sharma
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages276
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size6 MB
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