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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् विशेषव्याख्या-नारक, तैर्यगयोनि मनुष्य और देव ये चार गति; क्रोध, मान, माया, तथा लोभ ये चार कषाय; स्त्रीवेद, पुंवेद और नपुंसकवेद ये तीन लिङ्ग; मिथ्यादृष्टिरूप मिथ्यादर्शन एक, अज्ञान एक, अविरत असंयतरूप असंयत एक, असिद्धत्व एक, और कृष्णलेश्या, नीललेश्या, कापोतलेश्या, तेजोलेश्या पद्मलेश्या तथा शुक्ललेश्या इस प्रकार सब मिलकर इक्कीस प्रकार औदयिक भाव है ॥ ६ ॥
जीवभव्याभव्यत्वादीनि च ॥७॥ सूत्रार्थ:-जीवत्व, भव्यत्व, और अभव्यत्व ये तीनों पारिणामिक भाव हैं । भाष्यम्-जीवत्वं भव्यत्वमभव्यत्वमित्येते त्रयः पारिणामिका भावा भवन्तीति । आदिग्रहणं किमर्थमिति । अत्रोच्यते । अस्तित्वमन्यत्वं कर्तृत्वं भोक्तृत्वं गुणवत्त्वमसर्वगतत्वमनादिकर्मसन्तानबद्धत्वं प्रदेशत्वमरूपत्वं नित्यत्वमित्येवमादयोऽप्यनादिपारिणामिका जीवस्य भावा भवन्ति । धर्मादिभिस्तु समाना इत्यादिग्रहणेन सूचिताः । ये जीवस्यैव वैशेषिकास्ते स्वशब्देनोक्ता इति । एते पञ्च भावास्त्रिपञ्चाशद्भेदा जीवस्य स्वतत्त्वं भवन्ति । अस्तित्वादयश्च । किं चान्यत्
विशेषव्याख्या-जीवत्व, भव्यत्व, तथा अभव्यत्व आदि पारिणामिक भाव हैं। पारिणामिक भावके तीन ही भेद कहे हैं, तब इस सूत्रमें आदिग्रहण क्यो किया ? इसका उत्तर कहते हैं,:-अस्तित्व, अन्यत्व, कर्तृत्व, भोक्तृत्व, गुणवत्व, असर्वगतत्व, अनादिकर्मसन्तानबद्धत्व, प्रदेशत्व, अरूपत्व तथा नित्यत्व; इत्यादि और भी अनादिकालसिद्ध पारिणामिक भाव जीवके हैं । और ये अस्तित्वादि भाव धर्मादिके समान हैं, इसलिये आदिग्रहणसे उनको भी सूचित किया है । जो जीवके वैशेषिक अर्थात् जो विशेष करके जीवमें ही होते हैं, उनको तो पृथक् २ स्व शब्दसे कहा है । ये औपशमिकादि पांचों भाव मिलके त्रिपञ्चाशत अर्थात् ५३ भेद जीवके स्वतत्त्व हैं, अर्थात् निज विशेष भाव हैं, जो कि जीवमें ही होते हैं । और अस्तित्वादि भी जीवके भाव हैं ॥ ७ ॥ और भी कहते है,:
उपयोगो लक्षणम् ॥ ८॥ सूत्रार्थ:--उपयोगवत्ता जीवका लक्षण है। भाष्यम् - उपयोगो लक्षणं जीवस्य भवति । विशेषव्याख्या-जीवका उपयोग लक्षण होता है अर्थात् जीव उपयोगलक्षणयुक्त होता है ॥ ८ ॥
स द्विविधोऽष्टचतुर्भेदः ॥९॥ सूत्रार्थ:-वह उपयोग दो प्रकारका है। एक अष्टविध है, और दूसरा चतुर्विध है। भाष्यम्-स उपयोगो द्विविधः साकारोऽनाकारश्च ज्ञानोपयोगो दर्शनोपयोगश्चेत्यर्थः ।
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