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________________ सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । ये लेश्या आदि भाव नरकगतिमें तथा नरकके पंचेन्द्रियजातमें उस भवके क्षय पर्यन्त उद्वर्तनसे निरन्तर होते हैं, एक निमेषमात्रकेलिये भी उनका अभाव नहीं होता । और न वे कदाचित् शुभ होते हैं; इसी हेतुसे उनको नित्य कहते हैं। ___ अशुभतरलेश्याः । कापोतलेश्या रत्नप्रभायाम् । ततस्तीव्रतरसंक्लेशाध्यवसाना कापोता शर्कराप्रभायाम् । ततस्तीव्रतरसंक्लेशाध्यवसाना कापोतनीला वालुकाप्रभायाम् । ततस्तीव्रतरसंक्लेशाध्यवसाना नीला पङ्कप्रभायाम् । ततस्तीव्रतरसंक्लेशाध्यवसाना नीलकृष्णा धूमप्रभायाम् । ततस्तीव्रतरसंक्लेशाध्यवसाना कृष्णा तमःप्रभायाम् । ततस्तीव्रतरसंक्लेशाध्यवसाना कृष्णैव महातमःप्रभायामिति ॥ अशुभतरलेश्या-जैसे रत्नप्रभाग कापोतलेश्या होती है, और उससे भी अति तीव्र केश परिणामवाली कापोता शर्करा प्रभामें होती है । उससे भी तीव्रतर क्लेश परिणामवाली कापोतनीलालेश्या वालुकाप्रभामें होती है। उससे भी अति तीव्र क्लेश देनेवाली नीलालेश्या पङ्कप्रभामें होती है । उससे भी अति तीव्र क्लेश देनेवाली नीलकृष्णालेश्या धूमप्रभामें होती है। उससेभी अति तीव्र क्लेश देनेवाली कृष्णालेश्या तमःप्रभामें होती है; और सबसे अधिक क्लेशजनिका कृष्णालेश्या ही महातमःप्रभामें होती है । अशुभतरपरिणामः । बन्धनगतिसंस्थानभेदवर्णगन्धरसस्पर्शागुरुलघुशब्दाख्यो दशविधोऽशुभः पुद्गलपरिणामो नरकेषु । अशुभतरश्चाधोऽधः । तिर्यगूर्ध्वमधश्च सर्वतोऽनन्तेन भयानकेन नित्योत्तमकेन तमसा नित्यान्धकाराः श्लेष्ममूत्रपुरीषस्रोतोमलरुधिरवसामेदपूयानुलेपनतलाः श्मशानमिव पूतिमांसके शास्थिचर्मदन्तनखास्तीर्णभूमयः। श्वशृगालमार्जारनकुलसर्पमूषकहस्त्यश्वगोमानुषशवकोष्ठाशुभतरगन्धाः । हा मातर्धिगहो कष्टं बत मुञ्च तावद्धावत प्रसीद भर्तर्मा वधीः कृपणकमित्यनुबद्धरुदितैस्तीबकरुणैर्दीनविक्लवैर्विलापैरातस्वनैर्निनादैर्दीनकृपणकरुणैर्याचितैर्बाष्पसंनिरुद्धौर्नस्तनितैर्गाढवेदनैः कूजितैः सन्तापोष्णैश्च निश्वासैरनुपरतभयस्वनाः ॥ __ अशुभतरपरिणाम-बन्धन, गति, संस्थान (रचनाविशेष) भेद, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, अगुरुलघु और शब्द नामक दश प्रकारके अशुभ पुद्गल परिणाम नरकोंमें हैं। ये परिणाम नरककी भूमियोंके अधो २ भागोंमें अधिक २ अशुभतर हैं । तिरछे नीचे, ऊपर, और चारों ओरसे अनन्त, भयानक, नित्य तथा उत्तम अर्थात् प्रथम श्रेणीके अन्धकारसे निरन्तर अन्धकारमय, श्लेष्म (नाक तथा मुखसे गिरनेवाला कफ) मूत्र, तथा विष्टाओंके श्रोतसे अर्थात् प्रवाहसे, तथा मल, रुधिर, चर्वी तथा पीबसे लिप्त तल सहित, और स्मशानभूमिके समान अति दुर्गन्धयुक्त सड़ेमांस, केश, अस्थि ( हड्डियां ) चर्म, दांत और नखोंसे ढंकी हुई नरककी भूमियां हैं। तथा कुत्ते, शृगाल (गीदड), मार्जार (बिल्ली ), नकुल (नेवला ) सर्प, मूषक, हाथी, घोडे, गौ और मनुष्य इनके मृतकोंसे पूर्ण अतएव अशुभतर गन्धयुक्त वे नरक Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004021
Book TitleSabhashya Tattvarthadhigam Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorThakurprasad Sharma
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages276
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size6 MB
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