________________
६६
रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् पञ्चदश दश त्रीण्येकं पञ्चोनं नरकशतसहस्रमित्याषष्ठयाः । सप्तम्यां तु पञ्चैव महानरका इति ॥
विशेषव्याख्या—पूर्वोक्त रत्नप्रभादि भूमियोमें ऊपर और नीचे एकशः सहस्र २ योजन छोड़के मध्य २ में नरक हैं । जैसे; उष्ट्रिका, पिष्टपचनी, लोहीकर, केन्द्रजानुका, जन्तोक, आयस्कुम्भ, तथा अयःकोष्ठादि यंत्रोंके आकारसे रचित, वज्रतलवाले, सीमन्तक नाम नरक पर्यन्त रौरव, अच्युत, रौद्र, हाहारव, घातन, शोचन (शोधन वा पाचन) तापन, क्रन्दन, विलपन, छेदन, भेदन, खटाखट, और कालपिंजर इत्यादि अशुभ नामवाले काल, महाकाल, रौरव, तथा महारौरव अप्रतिष्ठान पर्यन्त हैं । रत्नप्रभा भूमिमें नरकोंके त्रयोदश अर्थात् तेरह प्रस्तार हैं। और शेष छै भूमियोंमें दो २ प्रस्तार कम होते गये हैं; अर्थात् शर्करा प्रभामें ग्यारह प्रस्तार, वालुका प्रभामें नौ, पङ्कप्रभामें सात, धूमप्रभामें पांच, तमःप्रभामें तीन, और महातमःप्रभामें एक ही प्रस्तार है । पुनः उनमेंसे रत्नप्रभाभूमिमें नरकके निवासस्थान तीस लाख हैं। और शेषमें पच्चीस, पन्द्रह, दश, तीन, पांचकम एक लाख, इस प्रकार छट्ठी भूमिपर्यन्त हैं, और सप्तमीमें केवल पांच ही नरकके आवास हैं । तात्पर्य यह है, कि रत्नप्रभामें तीसलाख नरकावास हैं, शर्कराप्रभामें पच्चीस लाख, वालुकाप्रभामें पन्द्रहलाख, पंकप्रभा दशलाख, धूमप्रभामें तीनलाख, और तमप्रभाग पांचकम एकलाख (९९९९५) और सातवीं महातमःप्रभामें केवल पांच ही हैं । सब मिलकर चौरासी लाख हैं ॥ २ ॥
नित्याशुभतरलेश्यापरिणामदेहवेदनाविक्रियाः ॥३॥ सूत्रार्थः-वे नरकावास अधो अधो भागमें नित्य ही अधिक अशुभतर लेश्या, अशुभतर परिणाम, अशुभतर देहोंकी पीडा, और अशुभतर विक्रियायुक्त होते हैं ।
भाष्यम् –ते नरका भूमिक्रमेणाधोऽधो निर्माणतोऽशुभतराः । अशुभा रत्नप्रभायां ततो. ऽशुभतराः शर्कराप्रभायां ततोऽप्यशुभतरा वालुकाप्रभायाम् । इत्येवमासप्तम्याः ॥
विशेषव्याख्या-वे नरकभूमि क्रमसे अधो अधो भागमें निर्माणकी रीतिसे अशुभतर हैं। तात्पर्य यह कि रत्नप्रभामें नरक अशुभ हैं, उससे अशुभतर शर्कराप्रभामें हैं, उससे भी अशुभतर वालुकाप्रभामें हैं, और उससे भी अशुभतर पङ्कप्रभामें हैं । इसीप्रकार और आगे सप्तमी अर्थात् महातमःप्रभातक जानने चाहिये।
नित्यग्रहणं गतिजातिशरीराङ्गोपाङ्गकर्मनियमादेते लेश्यादयो भावा नरकगतौ नरकपञ्चेन्द्रियजातौ च नैरन्तर्येणाभवक्षयोद्वर्तनाद्भवन्ति न कदाचिदक्षिनिमेषमात्रमपि न भवन्ति शुभा वा भवन्त्यतो नित्या इत्युच्यन्ते ॥
“नित्याशुभतरलेश्या-" इत्यादि ऊपरके सूत्रमें 'नित्य' ग्रहण इस कारण है, कि गति (नरकगति), जाति (नारकी), शरीर (नारकशरीर), और अङ्गोपाङ्ग कर्मोंके नियमसे
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org