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________________ सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । १६३ 1 धोपवासो नाम पौषधे उपवासः पौषधोपवासः । पौषधः पर्वेत्यनर्थान्तरम् । सोऽष्टमीं चतुर्दशीं पञ्चदशीमन्यतमां वा तिथिमभिगृह्य चतुर्थाद्युपवासिना व्यपगतस्नानानुलेपनगन्धमाल्यालंकारेण न्यस्तसर्वसावद्ययोगेन कुशसंस्तारफलकादीनामन्यतमं संस्तारमास्तीर्य स्थानं वीरासननिषद्यानां वान्यतममास्थाय धर्मजागरिकापरेणानुष्ठेयो भवति । उपभोगपरिभोगवतं नामाशनपानखाद्यस्वाद्यगन्धमाल्यादीनामाच्छादनप्रावरणालंकारशयनासनगृहयानवाहनादीनां च बहुसावद्यानां वर्जनम् । अल्पसावद्यानामपि परिमाणकरणमिति || अतिथिसंविभागो नाम न्यायागतानां कल्पनीयानामन्नपानादीनां द्रव्याणां देशकालश्रद्धासत्कारक्रमोपेतं परयात्मानुग्रहबुद्धया संयतेभ्यो दानमिति ॥ विशेषव्याख्या - दिग्वत, देशव्रत, अनर्थदण्डव्रत, सामायिकत्रत, पौषधोपवासव्रत, उपभोगपरिभोगव्रत, तथा अतिथिसंविभागत्रत, ये जो उत्तरत्रत हैं इनसे सम्पन्न ( युक्त ) अर्थात् इन व्रतोंके करनेवाला भी अगारी व्रती है । इनमें से दिग्वतका लक्षण यह है कि-तिर्यग् ( इधर उधर ) आठों दिशाओं में ऊपर ( पर्वतादि के ) और अधोभाग में गमनके परिमाणका नियम करना और उससे परे सब जीवोंके विषय में सार्थक वा निरर्थक संपूर्ण सावद्य ( निन्दित ) योगों का त्याग करना, यही दिग्वत है । देशत्रत वह है कि- अपनेके अपवरक ( सब ओरसे आवृत करनेवाले, घेरनेवाले ) जो गृह, ग्राम तथा सीमा आदि हैं उनमें यथाशक्ति प्रविचार ( गमनागमन) के लिये परिमाणका अभिग्रह अर्थात् नियम करना । और उस सीमासे परे संपूर्ण प्राणियोंके विषे अर्थसे वा अनर्थसे संपूर्ण सावद्य ( निन्दा वा दोषसहित ) काय, वाक् तथा मनोमय योगों का त्याग करना । अनर्थदण्ड- ड-नाम उपभोग, तथा परिभोग इस अगारी व्रतीके अर्थ हैं और उससे भिन्न अनर्थ है, उस अनर्थके लिये जो दण्ड है उसको अनर्थदण्ड कहते हैं । इस हेतुसे उस अनर्थदण्डसे जो विरति अर्थात् उपराम वा निवृत्ति है उसको अनर्थदण्डवत कहते हैं । सामायिक वह है कि - किसी नियत कालके लिये सम्पूर्ण सावद्य अर्थात् ग वा निन्दनीय योगोंका त्याग । पौषधोपवास, इसका अर्थ यह है कि - पौषध अर्थात् पर्वमें जो उपवास ( भोजनादिका त्याग ) वह पौषधोपवास है । पौषध तथा पर्व ये दोनों समानार्थवाचक शब्द हैं । यह पौषधोपवास अष्टमी, चतुर्दशी, अथवा पूर्णिमा अमावास्या इनमेंसे किसी एक तिथिको वा सबको नियम करके चतुर्थकाल आदि उपवास करनेवाले प्राणीको स्नान अनुलेपन ( उबटनाआदि सुगन्धित द्रव्य जो शरीरमें लगाये जाते हैं ) गन्ध, अतर, तैल आदि, माल्य अर्थात् पुष्पमाला आदि तथा आभूषणोंके त्यागसहित और संपूर्ण सावद्य योगों से भी रहित होकर, कुश, चटाई वा पाटा इनमेंसे किसी एक आसन के ऊपर वीर, पद्म, अथवा स्वस्तिक आदिमेंसे किसी एक आसन से बैठकर धर्मजागरिकामें तत्पर होके अर्थात् धर्मार्थ जागरणमें परायण होके अनुष्ठान करनेयोग्य है । तात्पर्य यह कि इस पूर्वोक्त नियमसे पौषधोपवासका अनुष्ठान करना चाहिये । Jain Education International' For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004021
Book TitleSabhashya Tattvarthadhigam Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorThakurprasad Sharma
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages276
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size6 MB
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