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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम्
निःशल्यो व्रती ॥ १३ ॥ सूत्रार्थ-शल्योंसे जो रहित है, वही व्रती है ॥ १३ ॥ भाष्यम्-मायानिदानमिथ्यादर्शनशल्यैस्त्रिभिर्वियुक्तो निःशल्यो व्रती भवति । व्रतान्यस्य सन्तीति व्रती । तदेवं निःशल्यो व्रतवान् व्रती भवतीति ॥
विशेषव्याख्या-मायाशल्य, निदानशल्य तथा मिथ्यादर्शनशल्य इन तीन प्रकारके शल्योंसे जो रहित है तथा निःशल्य अर्थात् जिसके शल्य निकलगये हैं वही व्रती है । तथा पूर्वोक्त अहिंसा आदि व्रत जिसमें हैं वह व्रती है । इस प्रकार जो निःशल्य तथा व्रतवान् (व्रतयुक्त) हो सो व्रती होता है ॥ १३ ॥
अगार्यनगारश्च ॥ १४॥ भाष्यम्-स एष व्रती द्विविधो भवति । अगारी अनगारश्च । श्रावकः श्रमणश्चेत्यर्थः ।।
सूत्रार्थ-व्रतीके दो भेद होते हैं । एक अगारी (गृही ) अर्थात् श्रावक और दूसरा अनगारी अर्थात् श्रमण ॥ १४ ॥
अत्राह । कोऽनयोः प्रतिविशेष इति । अत्रोच्यते
अब यहां कहते हैं कि इन दोनों अर्थात् अगारी तथा अनगारी इनमें क्या भेद है ? इसपर यह सूत्र कहते हैं
अणुव्रतोऽगारी ॥१५॥ सूत्रार्थ-अणुव्रतवाला अगारी है ॥ १५ ॥ भाष्यम्-अणून्यस्य व्रतानीत्यणुव्रतः । तदेवमणुव्रतधरः श्रावकोऽगारी व्रती भवति ॥
विशेषव्याख्या—जिसके व्रत अणु अर्थात् लघु वा छोटे हैं वह श्रावक अगारी व्रती होता है ॥ १५॥ किं चान्यत्और अगारी व्रतीके विषयमें यह वक्ष्यमाण विशेष भी हैदिग्देशानर्थदण्डविरतिसामायिकपोषधोपवासोपभोगपरिभोगा
तिथिसंविभागव्रतसंपन्नश्च ॥ १६ ॥ सूत्रार्थ तथा दिग्वत, देशत्रत आदि जो व्रत हैं उन व्रतोंसे जो संपन्न अर्थात् युक्त हो वह अगारी व्रती होता है ॥ १६ ॥ __ भाष्यम्-एभिश्च दिग्व्रतादिभिरुत्तरव्रतैः संपन्नोऽगारी व्रती भवति । तत्र दिग्व्रतं नाम तिर्यगूलमधो वा दशानां दिशां यथाशक्ति गमनपरिमाणाभिग्रहः । तत्परतश्च सर्वभूतेवर्थतोऽनर्थतश्च सर्वसाबद्ययोगनिक्षेपः ॥ देशव्रतं नामापवरकगृहग्रामसीमादिषु यथाशक्ति प्रविचाराय परिमाणाभिग्रहः । तत्परतश्च सर्वभूतेष्वर्थतोऽनर्थतश्च सर्वसावद्ययोगनिक्षेपः ॥ अनर्थदण्डो नामोपभोगपरिभोगावस्यागारिणो व्रतिनोऽर्थः। तद्व्यतिरिक्तोऽनर्थः। तदर्थो दण्डोऽनर्थदण्डः । तद्विरतिव्रतम् । सामायिकं नामाभिगृह्य कालं सर्वसावद्ययोगनिक्षेपः ॥ पौष
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