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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् प्राणोंको धारण करै । और वह प्राणधारणरूप जीवन सिद्धोंमें नहीं होता, इस हेतुसे 'जीव, ऐसा कहनेसे एवंभूत नयसे तो भवस्थजीवका ही ग्रहण होता है । और 'नो जीव, ऐसा कहनेसे अजीवद्रव्य अथवा सिद्धका ग्रहण होता है । अजीव ऐसा कहनेसे अजीव द्रव्यका ही ग्रहण होता है, और नोजीव ऐसा कहनेसे संसारस्थ जीवका ही ज्ञान होता है। क्योंकि यह एवंभूत नय सम्पूर्णरूपसे पदार्थका ग्राहक है; इसके द्वारा देश तथा प्रदेशका ग्रहण नहीं होता । इसी रीतिसे "जीवौ जीवाः” दो जीव वा बहुत जीव इत्यादि द्वित्व तथा बहुतरूपसे कहनेपर भी संसारस्थ जीवका ही इस नयसे ग्रहण होता है ।
और सम्पूर्ण जीवमात्रका ग्रहण होनेपर तो जीव, नोजीव (ईषत् जीव ), अजीव, नोऽजीव ( ईषत् वा किंचित् अजीव ) जीव (दो जीव) नोजीव (द्वित्वसंख्या सहित नोजीव ) तथा दो अजीव और दो नोऽजीव इत्यादि एकत्व वा द्विरूपसे कहनेपर शून्यका ही बोध होगा। क्योंकि यह यथार्थग्राही नय संख्याकी अनन्ततासे जीवोंके बहुत्वको ही चाहता है। और पूर्वोक्त उदाहरणमें तो एकत्व तथा द्वित्व ही हैं, अर्थात् एकवचन और द्विवचन ही हैं । और शेष जो नय हैं, वे तो जातिकी अपेक्षासे एकमें बहुवचन तथा बहुतमें भी बहुवचनको सम्पूर्ण वचनोंसे एक वचनादिसे आकारित उच्चारित विकल्पोंको ग्रहण करनेवाले हैं । इसी प्रकार सब पदार्थोमें नयवादका ज्ञान समझना चाहिये । __ भाष्यम्-अत्राह । अथ पञ्चानां ज्ञानानां सविपर्ययाणां कानि को नयः श्रयत इति । अत्रोच्यते । नैगमादयस्त्रयः सर्वाण्यष्टौ श्रयन्ते । ऋजुसूत्रनयो मतिज्ञानमत्यज्ञानवर्जानि षट् ।। अत्राह । कस्मान्मति सविपर्ययां न श्रयत इति । अत्रोच्यते । श्रुतस्य सविपर्ययस्योपग्रहत्वात् । शब्दनयस्तु द्वे एव श्रुतज्ञानकेवलज्ञाने श्रयते । अत्राह । कस्मान्नेतराणि श्रयत इति । अत्रोच्यते । मत्यवधिमनःपर्यायाणां श्रुतस्यैवोपग्राहकत्वात् । चेतनाज्ञस्वाभाव्याच सर्वजीवानां नास्य कश्चिन्मिथ्यादृष्टिरज्ञो वा जीवो विद्यते । तस्मादपि विपर्ययान्न श्रयत इति । अतश्च प्रत्यक्षानुमानोपमानाप्तवचनानामपि प्रामाण्यमभ्यनुज्ञायत इति । आह च___ अब यहांपर कहते हैं, कि कुमति कुश्रुत तथा विभङ्गरूप विपर्यय ( अज्ञान ) सहित जो मत्यादि पांच ज्ञान हैं, उनमेंसे किन ज्ञानोंको कौन नय आश्रय करता है ? इसका उत्तर कहते हैं, कि नैगमसे आदि लेके जो तीन नय हैं, अर्थात् नैगम संग्रह और व्यवहार; सो आठों ज्ञानका अर्थात् कुमति कुश्रुत तथा विभङ्गज्ञान सहित पांचों ज्ञानोंका आश्रय करते हैं। और ऋजुसूत्र नयतो मतिज्ञान तथा मत्यज्ञानको छोडके षट् ज्ञानोंको आश्रय करता है । यहां कहते हैं, कि ऋजुसूत्र नय विपर्यय सहित मतिज्ञानका आश्रय क्यों नहीं करता? इस पर कहते हैं, कि विपर्यय सहित श्रुतका ही इससे उपग्रह होता है । और शब्दनय तो श्रुतज्ञान तथा केवलज्ञान इन्हीं दोनोंका आश्रय करता है। यहांपर कहते हैं, कि शब्द नय इन दोनों के सिवाय अन्यका आश्रय क्यों नहीं करता ? इसका
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