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सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् ।
१७७ दर्शनमोहनीय आदिके हैं। प्रथम मोहनीयबन्ध दो प्रकारका है; एक (१)दर्शनमोहनीय और दूसरा (२) चारित्रमोहनीय । अब उनमें प्रथम दर्शनमोहनीय नामक जो बन्ध है उसके तीन (३) भेद हैं। जैसे-मिथ्यात्ववेदनीय १, सम्यक्त्ववेदनीय २, तथा सम्यग्मिथ्यात्व-एतदुभयवेदनीय ३ और चारित्रमोहनीयके दो (२)भेद हैं, एक (१)कषायवेदनीय १ और दूसरा नोकषायवेदनीय २। उनमें भी कषायवेदनीयके षोडश अर्थात् सोलह (१६)भेद हैं । जैसेअनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, तथा लोभ, अर्थात् अनन्तानुबन्धीक्रोधकषाय, अनन्तानुबन्धीमानकषाय, अनन्तानुबन्धी मायाकषाय, तथा अनन्तानुबन्धी लोभकषाय। इसी प्रकार अप्रत्याख्यानकषाय, प्रत्याख्यानावरणकषाय, तथा संज्वलनकषाय हैं । तात्पर्य यह किजैसे-अनन्तानुबन्धीकी क्रोधआदि प्रत्येकके साथ योजना हुई है ऐसे ही अप्रत्याख्यान आदिकी भी होती है। जैसे-अप्रत्याख्यानक्रोधकषाय, अप्रत्याख्यानमानकषाय, अप्रत्याख्यानमायाकषाय, तथा अप्रत्याख्यानलोभकषाय । इसी रीतिसे प्रत्याख्यानावरण, तथा संज्वलनकी प्रत्येकके साथ योजना करनेसे क्रोध, मान, माया तथा लोभ ये सोलह प्रकारके होजाते हैं । नोकषायवेदनीयके नौ (९)भेद हैं । जैसे—हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, पुरुषवेद, स्त्रीवेद, और नपुंसकवेद। उनमें पुरुषवेदादिके तृण, काष्ठ, तथा करीषकी अग्निके निदर्शन अर्थात् दृष्टान्त क्रमसे होसकते हैं। इस प्रकार मोहनीयप्रकृतिके अट्ठाईस (२८) भेद हुए; अर्थात् तीन ३ दर्शनमोहनीयके, चारित्रमोहनीयमेंके कषायके १६, नोकषायके ९. इनमेंसे तीन वेदके निकालनेसे अठ्ठाइस होते हैं।
अनन्तानुबन्धी सम्यग्दर्शनोपघाती । तस्योदयाद्धि सम्यग्दर्शनं नोत्पद्यते । पूर्वोत्पन्नमपि च प्रतिपतति । अप्रत्याख्यानकषायोदयाद्विरतिर्न भवति । प्रत्याख्यानावरणकषायोदयाद्विरताविरतिर्भवत्युत्तमचारित्रलाभस्तु न भवति । संज्वलनकषायोदयाद्यथाख्यातचारित्रलाभो न भवति ॥ ___ अब इनमें अनन्तानुबन्धी कषाय सम्यग्दर्शनका उपघाती होता है । उस अनन्तानुबन्धी कषायके उत्पन्न होनेसे सम्यग्दर्शन उत्पन्न ही नहीं होता, और यदि अनन्तानुबन्धी कषायके उदयके पूर्व सम्यग्दर्शन उत्पन्न होगया हो तो उसके उदयके पश्चात् वह सम्य- . ग्दर्शन विनष्ट होजाता है । अर्थात् पूर्वकालमें उत्पन्न भी सम्यग्दर्शनका इस कषायके उदय होनेसे प्रतिपात (नाश)हो जाता है। अप्रत्याख्यानकषायके उदयसे विरति (हिंसादिसे विरति) नहीं होती । और प्रत्याख्यानावरणकषायके उदयसे विरताविरति तो होती है परंतु उत्तम चारित्रका लाभ नहीं होता । __ क्रोधः कोपो रोषो द्वेषो भण्डनं भाम इत्यनान्तरम् । तस्यास्य क्रोधस्य तीव्रमध्यविमध्यमन्दभावाश्रितानि निदर्शनानि भवन्ति । तद्यथा । पर्वतराजिसदृशः भूमिराजिसदृशः वालुकाराजिसदृशः उदकराजिसदृश इति । तत्र पर्वतराजिसदृशो नाम । यथा प्रयोगवित्रसामिश्रकाणामन्यतमेन हेतुना पर्वतराजिरुत्पन्ना नैव कदाचिदपि संरोहति एवमिष्टवियोजना.
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