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________________ १०० रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् र्णतारका इति पञ्चविधा ज्योतिष्का इति । असमासकरणमार्षाच्च सूर्याचन्द्रमसोः क्रमभेदः कृतः यथा गम्यतैतदेवैषामूर्ध्वनिवेश आनुपूर्व्यमिति । तद्यथा-सर्वाधस्तात्सूर्यास्ततश्चन्द्रमसस्ततो ग्रहास्ततो नक्षत्राणि ततोऽपि प्रकीर्णताराः । ताराग्रहास्त्वनियतचारित्वात्सूर्यचन्द्रमसामूर्ध्वमधश्च चरन्ति । सूर्येभ्यो दशयोजनावलम्बिनो भवन्तीति । समामिभागादष्टसु योजनशतेषु सूर्यास्ततो योजनानामशीत्यां चन्द्रमसस्ततो विंशत्यां तारा इति । द्योतयन्त इति द्योतींषि विमानानि तेषु भवा ज्योतिष्का ज्योतिषो वा देवा ज्योतिरेव वा ज्योतिष्काः । मुकुटेषु शिरोमुकुटोपगृहितैः प्रभामण्डलकल्पैरुज्ज्वलैः सूर्यचन्द्रतारामण्डलैयथास्वं चिट्ठविराजमाना द्युतिमन्तो ज्योतिष्का भवन्तीति ॥ विशेषव्याख्या-ज्योतिष्क देव पांच प्रकारके हैं । यथाः-सूर्य, चन्द्रमा, ग्रह, नक्षत्र, और प्रकीर्णक तारका ये पांच प्रकारके ज्योतिष्क देव हैं । इस सूत्रमें समास न करनेका और आर्ष प्रमाणसे सूर्य तथा चन्द्रमाका क्रमभेद करनेका कारण यह है कि, जिससे यह सूचित होजाय कि इनकी यथाक्रम ऊर्ध्व स्थिति है । अर्थात् आर्ष ग्रन्थोंमें चन्द्रमा पूर्व पठित है और सूर्य पश्चात्, वह यहाँपर इष्ट नहीं है। यहाँपर सूर्यको ही प्रथम कहना है । क्योंकि पाठक्रमानुसार ऊपर इनकी स्थिति नहीं है। किंतु इनकी एकके पश्चात् दूसरेकी ऊपर २ स्थिति है । जैसे-सबके नीचे प्रथम सूर्य हैं, पश्चात् चन्द्रमा हैं, चन्द्रमाओंके ऊपर ग्रह हैं, उनके ऊपर नक्षत्र हैं और नक्षत्रोंके ऊपर प्रकीर्णकतारका हैं । और ताराग्रह तो अनियतचारी अर्थात् जिनकी गति नियत नहीं ऐसे होनेसे सूर्य तथा चन्द्रमाके ऊपर तथा नीचे भी भ्रमण करते हैं. और सूर्यसे दश योजन अवलम्ब होते हैं अर्थात् सूर्यसे दश योजन दूर रहते हैं । समान भूमिभागसे आठसौ (८००) योजनपर सूर्य हैं, सूर्यसे अस्सी (८०) योजनपर चन्द्रमा हैं, और चन्द्रमासे बीस (२०) योजनपर तारा हैं। प्रकाशशील विमानोंमें जो हैं, उनको ज्योतिप्क कहते हैं । ज्योतिष् (प्रकाश)से होनेवाले देव अथवा ज्योतिष् (प्रकाश ) रूप ही जो देव उनको ज्योतिष्क कहते हैं। उन ज्योतिष्कोंके मुकुटोंमें शिरोमुकुटोंसे आच्छादित और प्रभामण्डलोंके समान उज्वल ऐसे सूर्य, चन्द्र तथा ताराओंके मण्डलरूप अपने २ चिह्न यथाक्रमसे विराजमान हैं । अर्थात् सूर्य सूर्यमण्डलोंसे, चन्द्रमा चन्द्रमण्डलोंसे तथा तारागण तारामण्डलोंसे चिह्नित हैं । और वे ज्योतिष्क देव प्रकाशमय हैं। मेरुप्रदक्षिणानित्यगतयो नृलोके ॥ १४ ॥ सूत्रार्थ:-ज्योतिष्क देव मनुष्यलोकमें नित्यगतिरूप होकर मेरुकी प्रदक्षिणा करते हैं। भाष्यम्-मानुषोत्तरपर्यन्तो मनुष्यलोक इत्युक्तम् । तस्मिज्योतिष्का मेरुप्रदक्षिणानित्यगतयो भ्रमन्ति । मेरोः प्रदक्षिणा नित्या गतिरेषामिति मेरुप्रदक्षिणानित्यगतयः । एका. दशवेकविशेषु योजनशतेषु मेरोश्चतुर्दिशं प्रदक्षिणं चरन्ति । तत्र द्वौ सूर्यौ जम्बूद्वीपे, लवण Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004021
Book TitleSabhashya Tattvarthadhigam Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorThakurprasad Sharma
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages276
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size6 MB
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