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________________ सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । १०१ जले चत्वारो, धातकीखण्डे द्वादश, कालोदे द्वाचत्वारिंशत्पुष्करार्धे द्विसप्ततिरित्येवं मनुष्यलोके द्वात्रिंशत्सूर्यशतं भवति । चन्द्रमसामप्येष एव विधिः । अष्टाविंशतिनक्षत्राणि, अष्टाशीतिम्रहाः, षट्षष्टिः सहस्राणि नव शतानि पञ्चसप्ततानि तारा कोटाकोटीनामेकैकस्य चन्द्रमसः परिग्रहः । सूर्याश्चन्द्रमसो ग्रहा नक्षत्राणि च तिर्यग्लोके, शेषास्तूर्ध्वलोके ज्योतिष्का भवन्ति । अष्टचत्वारिंशद्योजनकषष्टिभागाः सूर्यमण्डलविष्कम्भः, चन्द्रमसः षट्पञ्चाशद् , ग्रहाणामधयोजनं, गव्यूतं नक्षत्राणां, सर्वोत्कृष्टायास्ताराया अर्धक्रोशो, जघन्यायाः पञ्चधनुःशतानि । विष्कम्भार्धबाहल्याश्च भवन्ति । सर्वे सूर्यादयो नृलोक इति वर्तते । बहिस्तु विष्कम्भबाहल्याभ्यामतोऽध भवंति ॥ एतानि च ज्योतिष्कविमानानि लोकस्थित्या प्रसक्तावस्थितगतीन्यपि ऋद्धिविशेषार्थमाभियोग्यनामकर्मोदयाच्च नित्यं गतिरतयो देवा वहन्ति । तद्यथा-पुरस्तात्केसरिणो, दक्षिणतः कुञ्जरा, अपरतो वृषभा, उत्तरतो जविनोऽश्वा इति ॥ विशेषव्याख्या-मानुषोत्तरपर्वतपर्यन्त मनुष्यलोक है ऐसा पूर्वप्रकरण अ० ३, सू० १४ में कहा है । उस मनुष्यलोकमें ज्योतिप्क देव नित्यगतिवाले होकर मेरु पर्वतकी प्रदक्षिणा करते हुए भ्रमण करते हैं । मेरुकी प्रदक्षिणारूप जिनकी नित्य गति है उनको मेरुप्रदक्षिणानित्यगतिवाले कहते हैं । ए ज्योतिष्क देव मेरुसे गेरासौ इक्कीस (११२१) योजन दूर चारों दिशाओंमें प्रदक्षिणा करतेहुए भ्रमण करते हैं । तहां जम्बूद्वीपमें दो, लवणजल (क्षारसमुद्र)में चार, धातकीखण्डमें बारह (१२), कालोद समुद्र में बयालीस (४२.) और पुष्करार्द्धमें बहत्तर (७२) सूर्य हैं; इस प्रकार मनुष्यलोकमें एकसौ बत्तीस (१३२) सूर्य होते हैं । चन्द्रमाओंकी भी यही विधि है । इन सब (चन्द्रमाओं)में अट्ठाईस (२८) नक्षत्र, अठासी (८८) ग्रह, तथा छासठ हजार नौसै पछत्तर (६६९७५) कोटाकोटी एक २ चन्द्रमाके ताराओंका परिग्रह है । अर्थात् प्रत्येक चन्द्रमाके (६६९७५) कोटाकोटी तारे हैं। सूर्य, चन्द्रमा, ग्रह और नक्षत्र ए तो तिर्यग्लोक अर्थात् मध्यलोकमें हैं, और शेष ज्योतिष्क अर्थात् प्रकीर्णक तारा ऊर्ध्वलोकमें रहते हैं । अड़तालीस (४८) योजन तथा साठमें एक भाग ६० योजन सूर्यमण्डलका विष्कम्भ है; चन्द्रमाका छप्पन (५६) योजन, ग्रहोंका आधा योजन, नक्षत्रोंका दो कोश और ताराओं में सबसे बड़ी ताराका अर्ध कोश और सबसे छोटीका पांचसौ १ शेषपदसे यहां प्रकीर्णताराओंसे तात्पर्य है । क्योंकि जो सूर्य, चन्द्र, ग्रह, और नक्षत्र यह चार गिनादिये तो शेष प्रकीर्णतारा रहे; वेही ऊर्ध्वलोकमें रहते हैं. यही अभिप्राय आचार्यका है। परंतु आर्षग्रन्थोमें ऐसा लेख नहीं है। क्योंकि वहां तो समस्त ज्योतिष्कोंकी स्थिति तिर्यग्लोकमे ही कही है। और "शेष तारारूप ज्योतिष्क ऊर्ध्वलोकमें होते हैं" यह वृत्तिकारका आशय उनके (वृत्तिकारके) बहुश्रुत होनेसे अविरुद्धंही है, क्योंकि अठारहसौ (१४००) योजन ऊंचा तिर्यग्लोक मानसे तिर्यग्लोकके अधोभागकी अपेक्षासे ऊर्ध्व दिग्भाव होताही है, इसमें कुछ विरोध नहीं है. अर्थात् ऊर्ध्वलोकका अर्थ ऊर्ध्वदिशा करनेसे सब विरोध मिटता है. For Personal & Private Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.004021
Book TitleSabhashya Tattvarthadhigam Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorThakurprasad Sharma
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages276
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size6 MB
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