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________________ १८ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् अर्थात् योग्य है वा अयोग्य इसप्रकार गुणदोषके विचारका जो उद्योग वा अपनोद है उसको अपा (वा) य कहते हैं । अपाय, अपगम, अपनोद, अपव्याध, अपेत, अपगत, अपविद्ध, और अपनुत्त, ये एकार्थवाचक हैं। पदार्थके स्वरूपके अनुसार जो उसकी प्रतिपत्ति, अर्थात् यथार्थबोध, वा बुद्धिकी पदार्थमें युक्त चिरकालार्थ स्थिति, अथवा अवधारणा है उसको धारणा कहते हैं । धारणा, प्रतिपत्ति, अवधारण, अवस्थान, निश्चय, अवगम, और अवबोध, ये शब्द एकार्थवाचक हैं ॥ १५॥ बहुबहुविधक्षिप्रानिश्रितानुक्तध्रुवाणां सेतराणाम् ॥ १६ ॥ सूत्रार्थः—बहु, बहुविध, क्षिप्र, अनिःसृत, अनुक्त, ध्रुव और इनसे इतर अर्थात् अल्प, अल्पविध, अक्षिप्र, निःसृत, उक्त, अध्रुव ये १२ भेद अवग्रहादिमें होते हैं। भाष्यम्-अवग्रहादयश्चत्वारो मतिज्ञानविभागा एषां बह्वादीनामर्थानां सेतराणां भवन्त्येकशः । सेतराणामिति सप्रतिपक्षाणामित्यर्थः । बह्ववगृह्णाति अल्पमवगृह्णाति बहुविधमवगृह्णाति एकविधमवगृह्णाति । क्षिप्रमवगृह्णाति चिरेणावगृह्णाति । अनिश्रितमवगृह्णाति निश्रितमवगृहाति । अनुक्तमवगृह्णाति उक्तमवगृह्णाति । ध्रुवमवह्नाति अध्रुवमवगृह्णाति । इत्येवमीहादीनामपि विद्यात् ॥ विशेषव्याख्या-मतिज्ञानके जो अवग्रह, ईहा, आदि चार विभाग हैं उन प्रत्येकमें बहु, बहुविध, तथा इनके विरुद्ध अल्प एकविध आदि १२ भेद होते हैं । यहां “सेतराणाम्" इससे बहुआदिके प्रतिपक्ष (विरुद्ध) अल्प, तथा एकविध, इत्यादिसे तात्पर्य है। जैसे बहुत ग्रहण करता है, अल्पग्रहण करता है । बहुविध (बहुप्रकार) से ग्रहण करता है, एकविध ग्रहण करता है। क्षिप्र अर्थात् शीघ्र ग्रहण करता है, चिरकालसे ग्रहण करता है। अनिश्चित (चिन्हादिसे अज्ञात) ही ग्रहण करता (जानता) है. निश्चित (लिङ्ग वा चिन्हसे ज्ञात) को ग्रहण करता है । अनुक्त विना कहा हुआ ही ग्रहण करता है, उक्त कहाहुआ ग्रहण करता है । ध्रुव ग्रहण करता है, तथा अध्रुव ग्रहण करता है । इसीप्रकार ईहादिके विषयमें भी बहु, बहुविध, तथा इनके विरुद्ध अल्प, एकविध आदिकी योजना करनी चाहिये । अर्थात् बहुईहा अल्पईहा इत्यादि जानना चाहिये ॥ १६ ॥ __ अर्थस्य ॥१७॥ भाष्यम्-अवग्रहादयो मतिज्ञानविकल्पा अर्थस्य भवन्ति ॥ विशेषव्याख्या-अवग्रह आदि जो मतिज्ञानके विकल्प (भेद) हैं, सो अर्थके ही होते हैं ॥ १७॥ व्यञ्जनस्यावग्रहः॥१८॥ सूत्रार्थः-व्यञ्जनका तो अवग्रह ही होता है। भाष्यम्-व्यञ्जनस्यावग्रह एव भवति नेहादयः । एवं द्विविधोऽवग्रहो व्यञ्जनस्यार्थस्य इहादयस्त्वथेस्यै Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004021
Book TitleSabhashya Tattvarthadhigam Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorThakurprasad Sharma
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages276
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size6 MB
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