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सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् ।
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विशेषव्याख्या- - व्यञ्जन (अव्यक्तशब्द आदि) का अवग्रह ही होता है न कि ईहा
आदि । इसप्रकार अवग्रह दो प्रकारका होता है. एक अर्थाऽवग्रह और दूसरा व्यञ्जनाsaग्रह और ईहा आदि तो अर्थके ही होते हैं ॥ १८ ॥
न चक्षुरनिन्द्रियाभ्याम् ॥ १९ ॥
सूत्रार्थः - नेत्रइन्द्रिय तथा अनिन्द्रिय ( मन ) से व्यञ्जनका अवग्रह नहीं होता । भाष्यम् – चक्षुषा नोइन्द्रियेण च व्यञ्जनावग्रहो न भवति । चतुर्भिरिन्द्रियैः शेषैर्भवतीत्यर्थः । एवमेतन्मतिज्ञानं द्विविधं चतुर्विधं अष्टाविंशतिविधं अष्टषष्टयुत्तरशतविधं षट्त्रिंशलिशतविधं च भवति ॥
विशेषव्याख्या - चक्षुष नेत्रइन्द्रिय और अनिन्द्रिय अर्थात् ईषत् इन्द्रिय मन, इन दोनोंसे व्यञ्जनका अवग्रहरूप ज्ञान नहीं होता है किन्तु शेष स्पर्शन आदि चार इन्द्रियोंसे होता है । इस रीति से इन्द्रिय और अनिन्द्रिय निमित्तसे मतिज्ञान दो प्रकारका होता है, अवग्रह तथा ईहा अपाय और धारणा इन भेदोंसे चार प्रकारका होता है । तथा स्पर्शन (त्वक्) आदि पांचइन्द्रियां और मन इन छहों के प्रत्येकके अवग्रह आदि चार २ भेद मिलके २४ और नेत्र तथा मनको छोडके शेष स्पर्शन आदि चार इन्द्रियों का चार प्रकारका व्यञ्जनाऽवग्रह सब मिलकर २८ प्रकारका भी मतिज्ञान होता है । और इन्हीं अट्ठावीस २८ भेदोंको बहु, बहुविध आदि छह २ भेदोंसे एकसोअड़सठ १६८ भेद मतिज्ञानके होते हैं । तथा इन्हीं पूर्वोक्त अट्ठावीस २८ भेदोंमेंसे प्रत्येकको बहु, बहुविध, तथा इनके इतर अल्प, एकविध आदिसे बारह भेद करनेसें तीनसोछत्तीस ३३६ भेद मतिज्ञानके होते हैं ॥ १९ ॥
अत्राह । गृह्णीमस्तावन्मतिज्ञानम् । अथ श्रुतज्ञानं किमिति । अत्रोच्यते ॥
अब कहते हैं कि मतिज्ञानको पूर्वोक्त भेदोंसहित ग्रहण करते हैं, अब क्रमप्राप्त श्रुतज्ञान क्या है, सो कहिये ? इसलिये श्रुतज्ञानके भेद प्रदर्शन करनेकेलिये अग्रिम सूत्र कहते हैं ।
श्रुतं मतिपूर्व द्व्यनेकद्वादशभेदम् ॥ २० ॥
सूत्रार्थ - श्रुतज्ञान मतिपूर्वक होता है, और उसके दो अनेक तथा द्वादश भेद हैं ।
भाष्यम् – श्रुतज्ञानं मतिज्ञानपूर्वकं भवति । श्रुतमाप्तवचनमागम उपदेश ऐतिह्यमाम्नाय : प्रवचनं जिनवचनमित्यनर्थान्तरम् । तद्विविधमङ्गबाह्यमङ्गप्रविष्टं च । तत्पुनरनेकविधं द्वादशविधं च यथासङ्खयम् । अङ्गबाह्यमनेकविधम् । तद्यथा । सामायिकं चतुर्विंशतिस्तवो वन्दनं प्रतिक्रमणं कायव्युत्सर्गः प्रत्याख्यानं दशवैकालिकं उत्तराध्यायाः दशाः कल्पव्यवहारौ निशीथमृषिभाषितान्येवमादि ॥ अङ्गप्रविष्टं द्वादशविधम् । तद्यथा । आचारः सूत्रकृतं स्थानं समवायः व्याख्याप्रज्ञप्तिः ज्ञातधर्मकथा उपासकाध्ययनदशाः अन्तकृद्दशाः अनुत्तरौपपातिक
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