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रायचन्द्र जैनशास्त्रमालायाम्
विशेषव्याख्या - चतुर्थ भूमिके पूर्व अर्थात् तीन भूमियोंमें संक्लिष्टपरिणामविशिष्ट असुरोंके द्वारा भी नरकके जीवोंको दुःख होते हैं । सो इस प्रकार कि, अम्ब, अम्बरीष, श्याम, शबल, रुद्र, उपरुद्र, काल, महाकालास्य, असिपत्रवन, कुम्भी, बालुका, वैतरणी, खर, स्वर, और महाघोष; ये पन्द्रह महा अधार्मिक (पापी) मिथ्यादृष्टि, पूर्वजन्मोंमें संक्लिष्ट काम करनेवाले, पापोंमें निरन्तर तत्पर, इसीसे आसुरी गतिको प्राप्त हुए, और कर्मक्लेशसे उत्पन्न होनेवाले असुर हैं । जो क्लेशदेनेहीके शील (स्वभाव) वाले होनेके कारणसे अनेक प्रकारकी चित्र विचित्र युक्तियोंकेद्वारा नरकके जीवोंको वेदना उत्पन्न करते हैं । यथा, अति संतप्त लोहके रसके पिलानेसे अति संतप्त लोहके खम्भे से आलिङ्गन करानेसे, मायारचित ( मिथ्याभूत ) शाल्मलीवृक्षके अग्रभाग में चढाने और उतारनेसे, लोहके घनसे ताडनादि द्वारा, वसूला तथा क्षुरे आदिसे अङ्गोंके काटनेसे, अतिक्षार और संतप्त ( अति उष्ण ) तैलसे स्नान करानेसे, लोहके घडोंमें पकानेसे, भुसीकी अग्निमें भूंजनेसे, अनेक प्रकारके ( कोल्हू आदि ) यंत्रों में पीड़नादिद्वारा, लोह रचित - शूल तथा शलाकाओं से, छेदनभेदनादिसे, आरोंसे अंगोंके चीड़ने फाड़नेसे, अङ्गाराग्निमें जलानेसे, तथा अग्नि लादनेसे और सूचीसदृश तीक्ष्ण कटीले घासों में घसीटने से, अनेक दुःख उत्पन्न करते हैं । तथा सिंह व्याघ्र, चीते, कुत्ते, शृगाल, भेड़िये, कोक, मार्जार, नकुल, सर्प, काक, गृध्र, काकोलूक ( घुग्घू वा उल्लू) और वाज आदि हिंसक जीवोंसे उनके मांस आदिको खिलानेसे, और अति संतप्त वालूमें चलानेसे, और तरवारके सदृश पत्रयुक्त वनोंमें प्रवेश करानेसे, वैतरणी (विष्टादि पूर्ण नदी) में तैरानेसे, तथा परस्पर युद्ध कराने आदिसे असुर नरकके जीवोंको दुःख देते हैं ।
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स्यादेतत्किमर्थं त एवं कुर्वन्तीति । अत्रोच्यते । पापकर्माभिरतय इत्युक्तम् । तद्यथा गोवृषभमहिषवराह मेषकुक्कुटवार्तकालावकान्मुष्टिमल्लांश्च युध्यमानान् परस्परं चाभिन्नतः पश्यतां रागद्वेषाभिभूतानामकुशलानुबन्धिपुण्यानां नराणां परा प्रीतिरुत्पद्यते तथा तेषामसुराणां नारकांस्तथा तानि कारयतामन्योन्यं नतश्च पश्यतां परा प्रीतिरुत्पद्यते । ते हि दुष्टकन्दर्पास्तथाभूतान् दृष्ट्वाट्टहासं मुञ्चन्ति चेलोत्क्षेपान्क्ष्वेडितास्फोटितावल्लिते तलतालनिपातनांश्च कुर्वन्ति महतश्च सिंहनादान्नदन्ति । तच्च तेषां सत्यपि देवत्वे सत्सु च कामिकेष्वन्येषु प्रीतिकारणेषु मायानिदानमिथ्यादर्शनशल्य तीव्र कषायोपहतस्यानालोचितभावदोषस्याप्रत्यवमर्षस्याकुशलानुबन्धिपुण्यकर्मणो बालतपसश्च भावदोषानुकर्षिणः फलं यत्सत्स्वप्यन्येषु प्रीतिहेतुष्वशुभा एव प्रीतिहेतवः समुत्पद्यन्ते ॥
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अस्तु, इस प्रकारकी वेदना संक्लिष्ट असुर देते हैं यह तो माना, परन्तु वे इस प्रकार क्यों करते हैं? ऐसा करनेसे उनका क्या प्रयोजन हैं ? इसपर कहते हैं कि; वे निरन्तर पाप कर्मोंमें ही तत्पर रहते हैं, यह वार्ता प्रथम कह आये हैं
।
इसलिये जैसे; गो,
बैल, महिष, (भैंसा), शूकर, मेष ( भेड़), कुक्कुट ( मुर्ग), नट तथा
मुष्टमल
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( मुष्टिका
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