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________________ सभाप्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । जीवोंको अवधिज्ञान भव ( जन्म ) रूप निमित्तसे ही होता है,, वह अवधिज्ञान नरकके जीवोंको अशुभका ही कारण होता है, और मिथ्यादर्शनके सम्बन्धसे वह ( अवधिज्ञान) विभङ्गज्ञान हो जाता है, अर्थात् क्ववधि ज्ञान हो जाता है । और उनके भावरूप दोषके उपघातसे दुःखका ही कारण वह विभङ्गज्ञान होता है; उस अवधिज्ञानसे वे चारोंओरसे अर्थात् तिर्यक् (तिरछा ) ऊपर नीचे और दूरसे निरन्तर दुःखोके हेतुओंको ही देखते हैं । और जैसे काक और उलूक, नकुल और सर्प उत्पत्तिहीसे बद्धवैर होते हैं । और भी जैसे कुत्ते अन्य अपरिचित कुत्तोंको देखकर निर्दयतापूर्वक क्रोध करते हैं, तथा परस्परदांतोंका प्रहार करते हैं; ऐसे ही नरकके जीव भी अवधिज्ञानसे पूर्वजन्मके वैर आदिको स्मरण करके दूरसे ही एक दूसरेको देखकर दुरन्त (बुरा है अन्त जिसका) तथा संसारके हेतुरूप तीव्र क्रोधयुक्त हो जाते हैं । इसके पश्चात् मिलनेसे पूर्व ही दुःखोंके समुद्धातसे अतिशय पीडित क्रोधरूप अग्निसे जाज्वल्यमान् चित्त, आकस्मिक विना विचारे कुत्तोंके समान समुद्धत होकर वैक्रियक भयानकरूप धारण करके वहां ही पृथिवीके परिणामसे उत्पन्न, अथवा क्षेत्रके प्रभावसे उत्पन्न, लोहमय शूल, शिला, मुशल, मुद्गर, कुन्त (भाला), तोमर (वी अथवा एक प्रकारके भाले), तलवार, असिपट्टिश (पट्टे वा ढाल), शक्ति, लोहके घन, खड्ग, यष्टि (लट्ठ) परशु, तथा बन्दूकादि अस्त्र शस्त्रोंको लेकर तथा कर चरण (घुस्से, लातें) और दांतोंसे परस्पर हनन करते है । तत्पश्चात् परस्पर अत्यन्त ताड़ित होनेसे छिन्न भिन्न शरीर होकर महावेदनासे चिल्लाते हुए पशुबद्ध स्थानमें प्रविष्ट महिष शूकर और भेड़ोंके समान उछलते हुए रुधिरके कीचड़में लोटते हैं । नरकोंमें परस्परसे उत्पन्न (किये हुए) इसी प्रकारके अनेक दुःख नारक जीवोंको होते हैं ॥ ४ ॥ संक्लिष्टासुरोदीरितदुःखाश्च प्राक् चतुर्थ्याः ॥५॥ सूत्रार्थः-नरकके जीवोंको संक्लिष्ट परिणामवाले असुरोंसे उदीरित ( उत्पादित) दुःख भी सहन करने पड़ते हैं, जो चौथी भूमिके पहिले २ होते हैं। भाष्यम्-संक्लिष्टासुरोदीरितदुःखाश्च नारका भवन्ति । तिसृषु भूमिषु प्राक् चतुर्थ्याः । तद्यथा । अम्बाम्बरीषश्यामशबलरुद्रोपरुद्रकालमहाकालास्यासिपत्रवनकुम्भीवालुकावैतरणीखरस्वरमहाघोषाः पञ्चदश परमाधार्मिका मिथ्यादृष्टयः पूर्वजन्मसु संक्लिष्टकर्माणः पापाभिरतय आसुरी गतिमनुप्राप्ताः कर्मक्लेशजा एते ताच्छील्यान्नारकाणां वेदनाः समुदीरयन्ति चित्राभिरुपपत्तिभिः । तद्यथा । तप्तायोरसपायननिष्टप्तायःस्तम्भालिङ्गनकूटशाल्मल्यग्रारोपणावतारणायोधनाभिघातवासी क्षुरतक्षणक्षारतप्ततैलाभिषेचनायःकुम्भपाकाम्बरीषतर्जनयन्त्रपीडनायःशूलशलाकाभेदनक्रकचपाटनाङ्गारदहनवाहनासूचीशाद्वलापकर्षणैः तथा सिंहव्याघ्रद्वीपिश्वशृगालवृककोकमार्जारनकुलसर्पवायसगृध्रकाकोलूकश्येनादिखादनैः तथा तप्तवालुकावतरणासिपत्रवनप्रवेशनवैतरण्यवतारणपरस्परयोधनादिभिरिति ।। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004021
Book TitleSabhashya Tattvarthadhigam Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorThakurprasad Sharma
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages276
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size6 MB
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