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________________ सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । इस हेतुसे श्रुतज्ञान मतिज्ञान पूर्वक है। अवधिज्ञान तथा मनःपर्याय ज्ञान भी रूपी द्रव्यके विषयमें अपायसद्रव्यतासे ही प्रवृत्त होता है। अतः उनकी सत्तामें मतिज्ञान रह सक्ता है । और केवलज्ञानीको इन्द्रियद्वारा पदार्थोपलब्धि नहीं होती, इस कारणसे केवलज्ञानीको मतिज्ञानादिज्ञान नहीं है । किं चान्यत् । और भी यह बात है, कि मतिज्ञानादि चारों ज्ञानोंमें पर्याय वा क्रमसे उपयोग होता है न कि एक ही कालमें । और मिलित है ज्ञानदर्शन जिसका ऐसे भगवान् केवलीको तो एक ही कालमें सर्वभावके ज्ञापक वा ग्राहक और अन्यज्ञाननिरपेक्ष केवलज्ञान तथा केवलदर्शन होते हैं और प्रतिक्षण वा प्रतिसमय ज्ञानोपयोग तथा दर्शनोपयोग होता है । और यह भी है, कि पूर्वमतिज्ञानादि चार ज्ञान तो ज्ञानावरणके क्षयोपशमसे उत्पन्न होते हैं, और केवल ज्ञान क्षयसे ही उत्पन्न होता है; इसलिये भी केवलज्ञानीको मतिज्ञान आदि शेष चार ज्ञान नहीं होते ॥३१॥ - मतिश्रुतावधयो विपर्ययश्च ॥ ३२ ॥ सूत्रार्थः-मति, श्रुत तथा अवधिज्ञान विपर्यय रूप भी होते है अर्थात् ये अज्ञानरूप भी हो जाते हैं। (१) नेत्रादि इन्द्रियोंसे उपलब्ध जो ईहित पदार्थ है, उसके निश्चयको अपाय कहते हैं. अर्थात् अवग्रह तथा ईहारूप मतिज्ञानसे गृहीत पदार्थके निश्चयको अपाय कहते हैं. ऐसा अपाय केवलीको अपेक्षित नहीं है, इस कारण केवलीको मतिज्ञानादिकी आवश्यकता नहीं है। (२) किं चान्यत् इससे अपने दोनों आशयोंको ग्रन्थकर्ता प्रकाश करते हैं, कि मतिज्ञानादि चारो ज्ञानोमें पर्यायसे क्रमसे उपयोग तथा निज २ विषयग्राहिता होती है, न कि एक कालमें । इनमें एक २ का. लमें न तो उपयोग ही है, और न निज २ विषयोंमें ग्राहकतारूप व्यापार ही है । जिस समय मतिज्ञानी मतिज्ञानसे उपयुक्त है अर्थात् मतिज्ञानरूप उपयोग उसमें है, उस समय अन्यश्रुतादि ज्ञानसे नहीं; और इसीप्रकार जिस समय श्रुतज्ञानसे उपयुक्त है, उस समय अन्यमतिआदि ज्ञानसे नहीं है । और केवलीको तो क्रमसे एतद्ज्ञानगत उपयोग नहीं है क्योंकि उसके विषयमें यह कहा गया है कि उसके दर्शन तथा ज्ञान संमिलित हैं। विशेष ग्राहक ज्ञान और सामान्य ग्राहक दर्शन ये दोनों जिस केवली भगवानके संभिन्न हैं, अर्थात् सर्वभाव ग्राहक हैं और माहात्म्यादि गुणोंसे संयुक्त सर्व द्रव्यपर्यायग्राहक केवल ज्ञान जिसको है वह केवली भगवान् है । उनको एक कालमें ही प्रतिसमय उपयोग होता है । सर्वभाव पंचास्तिकायादिका ग्राहक तथा इन्द्रियादिकी अपेक्षासे रहित उसका ज्ञान है । उसमें कालकृतव्यवधानसे शून्य निरन्तर उपयोग होता रहता है । 'अनुसमय, पदसे वारंवार उपयोग होता है, यह तात्पर्य है। कोई २ पंडितमन्य इस सूत्रका अन्यथा व्याख्यान करते हैं वह असंगत हैं । कदाचित् यह कहो कि, साकारज्ञान तथा निराकारदर्शन इन शब्दोंमें भेद होनेसे वारंवार एक कालमें ही दर्शनोपयोग तथा ज्ञानोपयोग नहीं हो सक्ता, क्योंकि प्रथम सामान्य ग्राहक निराकार दर्शन हो लेगा, पश्चात् ज्ञानोपयोग होगा सो भी ठीक नहीं है, क्योंकि केवली भग. वान्का जब ज्ञानावरणी सर्वथा क्षीण हो गया और दर्शनावरणी भी सर्वथा निरवशेष नष्ट हो गया तब आवरण भेद कहां रहा ? भगवान् केवलीका ज्ञान तो सर्वथा और सर्वदा विशेषरूपको परिच्छिन्न करके पदार्थ ग्राहक है। वहां अष्टविधि ज्ञानोपयोग और चतुर्विधि दर्शनोपयोग यह भी भेद न रहा, इससे सिद्ध हुआ, कि केवलीको मत्यादि ज्ञान नहीं होते। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004021
Book TitleSabhashya Tattvarthadhigam Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorThakurprasad Sharma
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages276
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size6 MB
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