________________
रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम्. भाष्यम्-मतिज्ञानं श्रुतज्ञानमवधिज्ञानमिति । विपर्ययश्च भवत्यज्ञानं चेत्यर्थः । ज्ञानविपर्ययो ऽज्ञानमिति । अत्राह । तदेव ज्ञानं तदेवाज्ञानमिति । ननु च्छायातपवच्छीतोष्णवच्च तदत्यन्तविरुद्धमिति । अत्रोच्यते । मिथ्यादर्शनपरिग्रहाद्विपरीतग्राहकत्वमेतेषाम् । तस्मादज्ञानानि भवन्ति । तद्यथा । मत्यज्ञानं श्रुताज्ञानं विभङ्गज्ञानमिति । अवधिर्विपरीतो विभङ्ग इत्युच्यते ॥
विशेषव्याख्या-मतिज्ञान, श्रुतज्ञान तथा अवधिज्ञान ये विपर्यय अर्थात् अज्ञान स्वरूपताको भी प्राप्त होते हैं क्योंकि विपर्यय कहनेसे ज्ञानका विपर्यय वा विरोधी अज्ञान हुआ । अब यहांपर कहते हैं, कि वे ही मति आदि ज्ञान और वे ही अज्ञान हैं ऐसा कथन किया सो यह कथन छाया और आतप अथवा शीत और उष्णके समान अत्यन्त विरुद्ध है, .अर्थात् एकहीमें दो विरुद्ध धर्म कैसे रह सक्ते हैं ? अब इसका उत्तर कहते हैं कि मिथ्यादर्शनके होनेसे इन मत्यादिज्ञानोंकी विपरीतग्राहकता हो जाती है, इस कारणसे ये अज्ञान हो जाते हैं । जैसे मत्यज्ञान, श्रुताज्ञान, और विभङ्गज्ञान । विपरीतावधिज्ञानको ही विभङ्गज्ञान कहते हैं, अथवा कुमति, कुश्रुत कुअधि वा विभङ्गावधि यों भी मति आदिके विपर्ययको कहते हैं ॥ ३२ ॥
अत्राह । उक्तं भवता सम्यग्दर्शनपरिगृहीतं मत्यादिज्ञानं भवत्यन्यथा ज्ञानमेवेति मिथ्यादृष्टयोऽपि च भव्याश्चाभव्याश्चेन्द्रियनिमित्तानविपरीतान्स्पर्शादीनुपलभन्ते उपदिशन्ति च स्पर्श स्पर्श इति रसं रस इति । एवं शेषान् । तत्कथमेतदिति । अत्रोच्यते । तेषां हि विपरीतमेतद्भवति । ___ अब यहांपर कहते हैं, कि आपने यह कहा, कि सम्यग्दर्शनके होनेसे तो मत्यादि ज्ञान हैं और अन्यथा अर्थात् मिथ्यादर्शनके होनेसे विपरीत अर्थात् अज्ञान हो जाते हैं, यह कैसे संगत होता है? क्योंकि मिथ्यादृष्टिजन भी कोई भव्य हैं, कोई अभव्य हैं वे भी इन्द्रिय अनिन्द्रिय निमित्तक अविपरीत स्पर्शादि विषयोंको प्राप्त होते हैं। और स्पर्शको स्पर्श, रसको रस, तथा रूपको रूप कहते हैं, इसी प्रकार शेष इन्द्रियों के विषयोंको आपके समान मिथ्यादृष्टि भी उपलब्ध करते हैं, तब यह कैसे हो सक्ता है कि आपगृहीत तो मत्यादि ज्ञान है और अन्यगृहीत अज्ञान है ? । अब यहां उत्तर देते हैं कि मिथ्यादृष्टियोंके मतिआदिज्ञान विपरीत अर्थात् अज्ञान ही होते हैं, क्योंकि उनको विवेक नहीं है । इसलिये यह अग्रिमसूत्र कहते हैं।
सदसतो रविशेषाद्यदृच्छोपलब्धरुन्मत्तवत् ॥ ३३॥ सूत्रार्थ:-मिथ्यादृष्टियोंके उन्मत्तके समान सत् तथा असत्की अविशेषसे यहच्छापूर्वक उपलब्धि होनेसे मत्यज्ञान श्रुताज्ञान विभङ्गज्ञान ही होते है ।
१सम्यग्दृष्टी. २ मिथ्यादृष्टी. Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org