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________________ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् भाष्यम्-एषां मत्यादीनां ज्ञानानामादित एकादीनि भाज्यानि युगपदेकस्मिजीवे आ चतुर्व्यः। कस्मिंश्चिज्जीवे मत्यादीनामकं भवति । कस्मिंश्चिज्जीवे द्वे भवतः । कस्मिंश्चित्रीणि भवन्ति । कस्मिंश्चिच्चत्वारि भवन्ति । श्रुतज्ञानस्य तु मतिज्ञानेन नियतः सहभावस्तत्पूर्वकत्वात् । यस्य तु मतिज्ञानं तस्य श्रुतज्ञानं स्याद्वा न वेति । अत्राह । अथ केवलज्ञानस्य पूर्वैमंतिज्ञानादिभिः किं सहभावो भवति । नेत्युच्यते । केचिदाचार्या व्याचक्षते । नाभावः । किं तु तदभिभूतत्वादकिंचित्कराणि भवन्तीन्द्रियवत् । यथा वा व्यभ्रे नभसि आदित्य उदिते भूरितेजस्त्वादादित्येनाभिभूतान्यन्यतेजांसि ज्वलनमणिचन्द्रनक्षत्रप्रभृतीनि प्रकाशनं प्रत्यकिचित्कराणि भवन्ति तद्वदिति । केचिदप्याहुः । अपायसद्व्यतया मतिज्ञानं तत्पूर्वकं श्रुतज्ञानमवधिज्ञानमनःपर्यायज्ञाने च रूपिद्रव्यविषये तस्मान्नैतानि केवलिनः सन्तीति ।। किं चान्यत् । मतिज्ञानादिषु चतुर्पु पर्यायेणोपयोगो भवति न युगपत् । संभिन्नज्ञानदर्शनस्य तु भगवतः केवलिनो युगपत्सर्वभावग्राहके निरपेक्षे केवलज्ञाने केवलदर्शने चानुसमयमुपयोगो भवति ॥ किं चान्यत् । क्षयोपशमजानि चत्वारि ज्ञानानि पूर्वाणि क्षयादेव केवलं । तस्मान्न केवलिनः शेषानि ज्ञानानि सन्तीति ॥ विशेष व्याख्या—ये जो मतिज्ञानादि ज्ञान कहे हैं, उनमेंसे आरंभसे ( मतिज्ञानसे लेकर ) एक कालमें तथा एक जीवमें एक ज्ञानसे लेकर चार ज्ञानतक प्राप्त हो सक्ते हैं। किसी जीवमें एक ही ज्ञान होता है, किसीमें दो होते हैं, किसी जीवमें तीन होते हैं और किसी जीवमें चारों ज्ञान होते हैं । तात्पर्य यह है, कि एक कालमें किसी जीवमें एक मतिज्ञान ही होता है। किसीमें मति श्रुत दोनों होते हैं, अथवा मति अवधि और मति मनःपर्याय होते हैं, किसीमें मति, श्रुत अवधि ये तीन होते हैं । और किसीमें मति, श्रुत, अवधि तथा मनःपर्याय ये चारों होते हैं । किन्तु यह अवश्य जानना उचित है, कि जहां श्रुतज्ञान है, वहां उसके साथ मतिज्ञानका पूर्व सहभाव अवश्य नियत है, क्योंकि मतिज्ञानपूर्वक श्रुतज्ञान होता है । अतएव यह नियम है, कि जिसको श्रुतज्ञान है उसको नियमसे मतिज्ञान है; परन्तु जिसको मतिज्ञान है उसको श्रुतज्ञान हो भी और न भी हो । अब यहांपर यह कहते हैं कि, केवल ज्ञानका मतिज्ञानादिके साथ सहभाव है कि नहीं है ? उत्तर-केवल ज्ञानके साथ मतिज्ञानादिका सहभाव नहीं है । परन्तु कोई २ आचार्य कहते हैं कि, केवल ज्ञानकी सत्ता दशामें मतिज्ञानादि ज्ञानोंका अभाव नहीं है किन्तु केवलज्ञानसे वे मत्यादि ज्ञान अभिभूत ( पराजित ) होनेसे ऐसे अकिंचित्कर हैं, जैसे कि नेत्रादि इन्द्रियां । केवल दशामें मतिश्रुतादि अन्यज्ञान अभिभूत होकर ऐसे अकिंचित्कर हैं, जैसे मेघ रहित आकाशमें सूर्यके उदित होनेपर अधिक तेजके कारण सूर्यसे अभिभूत अग्नि, मणि, चन्द्रमा तथा नक्षत्रादिके तेज प्रकाश करनेमें अकिंचित्कर हैं । और कोई ऐसा कहते हैं कि अपाय सद्रव्यता अर्थात् श्रोत्रादि इन्द्रियोंसे उपलब्ध पदार्थके निश्चयार्थ मतिज्ञानकी प्रवृत्ति होती है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004021
Book TitleSabhashya Tattvarthadhigam Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorThakurprasad Sharma
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages276
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size6 MB
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