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________________ सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । २७ विशेषव्याख्या - जिन रूपीद्रव्योंको अवधिज्ञानी जानता है, उससे अनन्त भा - गर्मे मनःपर्यायज्ञानका विषय निबंध है । अवधिज्ञानका विषय जो पदार्थ है, उसका अनन्तभाग अति सूक्ष्मतर मनःपर्यायज्ञानका विषय है । अतएव अवधिज्ञान के विषय के अनन्त भागको मनःपर्यायज्ञानी जानता है । और रूपीद्रव्यों को भी जो मनमें रहस्य गुप्त भावको प्राप्त मानुषक्षेत्रमें व्यवस्थित हैं, उनको जानता है । और मानुषक्षेत्र में स्थित विशुद्धतर रूपी द्रव्य हैं, उनको मनः पर्यायज्ञानी जानता है ॥ २९ ॥ सर्वद्रव्यपर्यायेषु केवलस्य ॥ ३० ॥ सूत्रार्थः – सम्पूर्ण द्रव्य तथा सम्पूर्ण पर्यायोंमें केवल ज्ञानका विषय निबन्ध है । भाष्यम् – सर्वद्रव्येषु सर्वपर्यायेषु च केवलज्ञानस्य विषयनिबन्धो भवति । तद्धि सर्वभावग्राहकं संभिन्नलोकालोकविषयम् । नातः परं ज्ञानमस्ति । न च केवलज्ञानविषयात्परं किंचिदन्यज्ज्ञेयमस्ति । केवलं परिपूर्ण समप्रमसाधारणं निरपेक्षं विशुद्धं सर्वभावज्ञापकं लोकालोकविषयमनन्तपर्यायमित्यर्थः ।। विशेष व्याख्या - जीवादि सम्पूर्ण द्रव्य तथा उन द्रव्योंके यावत् पर्याय हैं, वे सब केवल ज्ञानके विषय हैं । वह केवल ज्ञान संभिन्न लोक तथा अलोक सर्व विषयक है और सर्वभावोंका ग्राहक अर्थात् ग्रहण करनेवाला है । केवल ज्ञानसे बढकर कोई भी ज्ञान नहीं है । और केवल ज्ञानका जो विषय है, उससे परे कोई ऐसा अन्य पदार्थ भी नहीं है, जो कि केवल ज्ञानसे प्रकाशित न होवे । तात्पर्य यह है, कि सम्पूर्ण विषय तथा सम्पूर्ण विषयोंके सम्पूर्ण स्थूल तथा सूक्ष्म सर्व पर्याय हैं, उन सबको केवल ज्ञान प्रकाशित करता है । केवल ज्ञान परिपूर्ण है । समग्र है । असाधारण है । अन्य ज्ञानोंसे निरपेक्ष है अर्थात् निज विषयोंको अन्यकी अपेक्षा न रखके स्वयं सबको प्रकाशित करता है । विशुद्ध है | सर्व भावोंका ज्ञापक अर्थात् जतानेवाला है । लोकालोक विषयक है, अर्थात् लोक अलोक सभी इसके विषय हैं । तथा अनन्त पर्याय है, अर्थात् सब द्रव्योंके अनन्त पर्यायोंको यह केवलज्ञान प्रकाश करता है ॥ ३० ॥ 1 अत्राह । एषां मतिज्ञानादीनां युगपदेकस्मिञ्जीवे कति भवन्तीति । अत्रोच्यते । अब यहां पर कहते हैं, कि ये जो मतिज्ञानादि ज्ञान हैं, इनमेंसे एक कालमें तथा एक जीव में कितने ज्ञान हो सक्ते हैं, अर्थात् एक ही कालमें एक ही जीव में एक वा दो अथवा और कितने ज्ञान हो सक्ते हैं ? इस हेतुसे यह अग्रिमसूत्र कहते हैं । एकादीनि भाज्यानि युगपदेकस्मिन्ना चतुर्भ्यः ॥ ३१ ॥ सूत्रार्थः - एक कालमें तथा एक जीव में मति आदिज्ञानों में से एकसे लेकर चारतक ज्ञान हो सक्ते हैं । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004021
Book TitleSabhashya Tattvarthadhigam Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorThakurprasad Sharma
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages276
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size6 MB
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