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________________ सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । १३७ चार प्रकारका है । जैसे-द्रव्यास्तिक, मातृकापदास्तिक, उत्पन्नास्तिक, और पर्यायास्तिक । अब इनके अर्थ पद इस रीतिसे हैं. जैसे--एक द्रव्य वा दो द्रव्य वा बहुत द्रव्य अर्थात् एकत्व, द्वित्व तथा बहुत्व संख्यासहित द्रव्य सत् है; यह द्रव्यास्तिकका अर्थ है । असत् अर्थात् नहीं है । द्रव्यास्तिकका तथा मातृकापदास्तिकका भी ऐसाही है। एक मातृकापद, दो मातृकापद तथा बहुत मातृकापद सत् हैं । इसी प्रकार एक अमातृकापद, दो अमातृकापद, वा बहुत अमातृकापद असत् हैं । ऐसेही उत्पन्नास्तिकके विषयमें एक उत्पन्न, दो उत्पन्न अथवा बहुत उत्पन्न सत् हैं । और ऐसेही एक अनुत्पन्न वा दो अनुत्पन्न अथवा बहुत अनुत्पन्न असत् हैं । अर्पित अनुपस्थित होनेसे सत् वा असत् कुछ नहीं कहसकते । तथा पर्यायास्तिकके सद्भाव एक पर्याय, दो वा अधिक पर्यायोंमे आदिष्ट ( कहेहुए) एक द्रव्य वा दो, वा बहुत द्रव्य सत् हैं । और ऐसेही एक असद्भावपर्यायमें, वा दो अथवा बहुत असद्भावपर्यायोंमें आदिष्ट एक, दो वा अधिक द्रव्य असत् हैं । और ऐसेही सदसद् एतद्भाव एक दो वा अधिक पर्यायोंमें आदिष्ट एक दो वा बहुत द्रव्य सत् अथवा असद्रूपसे नहीं कहसकते । अर्थात् वह अवक्तव्य है । तात्पर्य यह है कि देश और आदेशसे वस्तुका विकल्प करना उचित है। अत्राह । उक्तं भवता संघातभेदेभ्यः स्कन्धा उत्पद्यन्त इति । तत्कि संयोगमात्रादेव संघातो भवति । आहोस्विदस्ति कश्चिद्विशेष इति । अत्रोच्यते । सति संयोगे बद्धस्य संघातो भवतीति ॥ ___ अब यहांपर कहते हैं कि आपने कहा है कि संघात तथा भेद वा संघात-भेदसे स्कन्ध उत्पन्न होते हैं, सो क्या संयोगमात्रसेही संघात होता है; अथवा कोई विशेषता है ? । अब इस विषयमें कहते हैं कि संयोग होनेपरही जो बद्ध है अर्थात् जिसका बन्ध है उसका संघात होता है ॥ ३१ ॥ अत्राह । अथ कथं बन्धो भवतीति । अत्रोच्यतेअब कहते हैं कि बन्ध कैसे होता है ? । इसपर यह अग्रिम सूत्र कहते हैं लिग्धरूक्षत्वाद्वन्धः॥ ३२ ॥ सूत्रार्थ:-स्निग्ध तथा रूक्षत्व हेतुसे बन्ध होता है । भाष्यम्-स्निग्धरूक्षयोः पुद्गलयोः स्पृष्टयोः स्पृष्टयोर्बन्धो भवतीति । विशेषव्याख्या-स्निग्ध पदार्थसे वा भीगे हुये तथा रूक्ष अर्थात् रूखे खरखरे पुद्गल जब आपसमें स्पृष्ट होते ( एक दूसरेसे छूजाते ) हैं तब बन्ध होता है ॥ ३२ ॥ अत्राह । किमेष एकान्त इति । अत्रोच्यते१ ऐसा भान होता है कि यह जो सद्रूपता सिद्ध करते हैं सो निज पर्याय आदिसे तौ सत् है और अन्य रूपसे असत् है, तथा एकही कालमें सदसदुभयरूपसे अवक्तव्य है। Jain Education Internatio/१८ For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004021
Book TitleSabhashya Tattvarthadhigam Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorThakurprasad Sharma
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages276
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size6 MB
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