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________________ सभाप्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । यहांपर यह शंका करते हैं, कि ये नय हैं, सो जैनतन्त्र ( शास्त्र ) से भिन्न जो कणाद आदिके शास्त्र वैशेषिक आदि हैं, उनमें कुशल जो वादी है उनके संकेत हैं अर्थात् वैशेषिकतन्त्रवादीजन इनको नय कहते हैं ? अथवा स्वतन्त्र (निज जैनशास्त्र) के संकेतसिद्ध चोदक पक्षग्राही अर्थात् दुरुक्त विषयके सूचक पक्षको ग्रहण करनेवाले अयथार्थ अर्थको मतिभेदसे कहनेकेलिये सहसा प्रवृत्त होनेवाले ये नय हैं? इसका समाधान करते हैं, कि ये नय कणाद वैशेषिक आदि शास्त्रोंके नहीं हैं, और स्वतंत्र मतभेदसे अयथार्थ अर्थके निरूपणकेलिये भी नहीं दौड पडे हैं, किन्तु ज्ञेय जीवादिक पदार्थोंके बोध करानेको उपाय विशेष ये नैगमादि नय हैं । जैसे घट (घटा) ऐसा कहनेपर कुंभकारकी चेष्टाओंसे उत्पन्न उर्ध्वदेशमें कुंडलाकार, विस्तृत, ओष्टसहित, वर्तुलाकार, ग्रीवायुक्त, अधोदेशमें परिमंडलाकार, जलादि द्रवीभूत पदार्थोंके आनयन तथा धारणादि कार्योंमें समर्थ, तथा उत्तरोत्तर पाकजनित रक्तादिगुणोंकी समाप्तिसिद्ध जो द्रव्य विशेष है उस एकमें वा उस जातिके सम्पूर्ण घटोंमें अविशेषरूपसे जो परिज्ञान है, वह नैगम नयका विषय हैं । तथा एक अथवा अनेक वर्तमान, अतीत, अनागत ( होनेवाले ) नाम आदिसे विशेषित घटोंका जो ज्ञान है, वह संग्रहनय है, अर्थात् संग्रहनयका विषय है। और लौकिक परीक्षाओंसे ग्रहण करने योग्य उपचारसे जानने योग्य उन्हीं घटोंमें स्थूल पदार्थोंके तुल्य जो ज्ञान है वह व्यवहार नय है । तथा वर्तमान कालमें विद्यमान उन्हीं घटोंमें जो ज्ञान है वह ऋजुमूत्र नयका विषय है । तथा नामादिमेंसे किसी एकके द्वारा ग्राह्य और प्रसिद्धिपूर्वक उन्हीं वर्तमानकालिक घटोमें जो ज्ञान है वह सांप्रत शब्द नयका विषय है । और वितर्क ध्यानके समान उन्हीं सांप्रत घटोंमें अध्यवसाय (निश्चयात्मक ज्ञान ) का जो असंक्रम है वह समभिरूढ नय है । और उन्हींमें व्यञ्जन तथा अर्थकी परस्पर अपेक्षासे जो पदार्थग्राहकता है, वह एवंभूत नयका विषय है । भाष्यम्-अत्राह । एवमिदानीमेकस्मिन्नर्थेऽध्यवसायनानात्वान्ननु विप्रतिपत्तिप्रसङ्ग इति। अत्रोच्यते । यथा सर्वमेकं सदविशेषात् सर्व द्वित्वं जीवाजीवात्मकत्वात् सर्व त्रित्वं द्रव्यगुणपर्यायावरोधात् सबै चतुष्वं चतुर्दर्शनविषयावरोधात् सर्व पञ्चत्वमस्तिकायावरोधात् सर्व षट्त्वं षड्द्रव्यावरोधादिति । यथैता न विप्रतिपत्तयोऽथ चाध्यवसायस्थानान्तराण्येतानि तद्वन्नयवादा इति । किं चान्यत् । यथा मतिज्ञानादिभिः पञ्चभिर्जानैर्धर्मादीनामस्तिकायानामन्यतमोऽर्थः पृथक् पृथगुपलभ्यते पर्यायविशुद्धिविशेषादुत्कर्षेण न च ता विप्रतिपत्तयः तद्वन्नयवादाः । यथा वा प्रत्यक्षानुमानोपमानाप्तवचनैः प्रमाणैरेकोऽर्थः प्रमीयते स्वविषय. नियमात् न च ता विप्रतिपत्तयो भवन्ति तद्वन्नयवादा इति । आह च अब यहांपर कहते हैं, कि एक ही पदार्थमें ज्ञानकी अनेकता ( नैगम संग्रह आदि रूपसे अनेक ज्ञानविषयता) होनेसे विवादका प्रसङ्ग हो गया, अर्थात् कीदृशज्ञानसे यहां Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004021
Book TitleSabhashya Tattvarthadhigam Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorThakurprasad Sharma
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages276
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size6 MB
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