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________________ ३२ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् भिरूढ, एवंभूत । अब इन नयोंके लक्षण क्या हैं । इसलिये कहते हैं:-निगमोंमें ( शास्त्रोंमें ) जो शब्द कहे गये हैं, उनके अर्थ, और शब्द तथा अर्थका जो ज्ञान है वह एकदेशसे ग्राही वा समग्ररूपसे ग्राही नैगम है । अर्थोंका सब रूपसे वा एकदेशसे जो संग्रह है, उसको संग्रह कहते हैं । लौकिकके समान उपचारसे बहुधा पूर्ण और विस्तृत अर्थका बोधक जो है वह व्यवहार नय है । विद्यमान सांप्रतिक अर्थों का अभिधान अथवा परिज्ञान जो है, उसको ऋजुसूत्र कहते हैं । और यथार्थ वस्तुका कथन वा नाम जो है, उसको शब्दनय कहते हैं । नामादिकमें प्रसिद्ध पूर्व शब्दसे जो शब्दार्थमें प्रत्यय अर्थात् ज्ञान है, वह सांप्रत शब्द नय है । विद्यमान अर्थों में जो असंक्रम है, वह समभिरूढ शब्दनय है । और व्यञ्जन तथा अर्थमें जो प्रवृत्त है, वह एवंभूतनय है ॥ ३५॥ भाष्यम्---अत्राह । उद्दिष्टा भवता नैगमादयो नयाः । तन्नया इति कः पदार्थ इति । नयाः प्रापकाः कारकाः साधका निवर्तका निर्भासका उपलम्भका व्यञ्जका इत्यनान्तरम् । जीवादीन्पदार्थान्नयन्ति प्राप्नुवन्ति कारयन्ति साधयन्ति निर्वर्तयन्ति निर्भासयन्ति उपलम्भयन्ति व्यञ्जयन्तीति नयाः॥ अब यहांपर कहते हैं, कि आपने नैगम आदि नयोंका संकीर्तन किया, अब उन नयोंमें नयत्व क्या पदार्थ हैं ? अर्थात् यहां नयशब्दका व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ क्या है.? इसका उत्तर कहते हैं:- नय, प्रापक ( अर्थविशेषको प्राप्त करानेवाले) कारक (विशेष कार्यके करनेवाले ) साधक, निवर्तक, निर्भासक ( किसी अर्थके प्रकाशक) उपलम्भक, तथा व्यञ्जक ये सब पर्यायवाचक वा समानार्थक शब्द हैं। जो जीवादि पदार्थों को प्राप्त करते हैं, प्राप्त होते हैं, कराते हैं, सिद्ध करते हैं, व्यवहारमें वर्ताते हैं, प्रकाशित करते हैं, उपलब्ध करते हैं, और प्रकट करते हैं, वे नय हैं । तात्पर्य यह कि नयशब्दका प्रापक, कारक तथा साधक आदि अर्थ है। भाष्यम्-अत्राह । किमेते तन्त्रान्तरीया वादिन आहोस्वित्स्वतन्त्रा एव चोदकपक्षग्राहिणो मतिभेदेन विप्रधाविता इति । अत्रोच्यते । नैते तन्त्रान्तरीया नापि स्वतन्त्रा मतिभेदेन विप्रधाविताः । ज्ञेयस्य त्वर्थस्याध्यवसायान्तराण्येतानि । तद्यथा । घट इत्युक्ते योऽसौ चेष्टाभिनिवृत्त ऊर्ध्वकुण्डलौष्टायतवृत्तग्रीवोऽधस्तात्परिमण्डलो जलादीनामाहरणधारणसमर्थ उत्तरगुणनिर्वर्तनानिवृत्तो द्रव्यविशेषस्तस्मिन्नेकस्मिन्विशेषवति तज्जातीयेषु वा सर्वेष्वविशेषात्परिज्ञानं नैगमनयः । एकस्मिन्वा बहुषु वा नामादिविशेषितेषु साम्प्रतातीतानागतेषु घटेषु सम्प्रत्ययः सङ्ग्रहः । तेष्वेव लौकिकपरीक्षकग्राह्येषूपचारगम्येषु यथास्थूलार्थेषु संप्रत्ययो व्यवहारः । तेष्वेव सत्सु साम्प्रतेषु संप्रत्यय ऋजुसूत्रः । तेष्वेव साम्प्रतेषु नामादीनामन्यतमग्राहिषु प्रसिद्धपूर्वकेषु घटेषु सम्प्रत्ययः साम्प्रतः शब्दः । तेषामेव साम्प्रतानामध्यवसायासङ्कमो वितर्कध्यानवत् समभिरूढः । तेषामेव, व्यञ्जनार्थयोरन्योन्यापेक्षार्थग्राहित्वमेवम्भूत इति ॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004021
Book TitleSabhashya Tattvarthadhigam Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorThakurprasad Sharma
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages276
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size6 MB
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