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रायचन्द्र जैनशास्त्रमालायाम्
क्षितः । कालोदसमुद्रः पुष्करवरद्वीपार्धेन परिक्षिप्तः । पुष्करद्वीपार्थं मानुषोत्तरेण पर्वतेन परिक्षिप्तम् । पुष्करवरद्वीपः पुस्करवरोदेन समुद्रेण परिक्षिप्तः । एवमास्वयम्भूरमणात्समुद्रादिति ॥
पूर्व २ का परिक्षेप करनेवाले हैं, इसका तात्पर्य यह है, कि सब द्वीप समुद्र अपनेसे पूर्व २ को चारों ओर से घेरे हैं । जैसे; प्रथम जम्बूद्वीप अपनेसे द्विगुण विष्कंभवाले लवणोदसमुद्रसे चारों ओरसे घिरा है, और लवणोदसमुद्र अपनेसे द्विगुण परिमाणवाले धातकीखंड से घिरा है । ऐसे ही धातकीखंडद्वीप कालोदसमुद्र से घिरा है । कालोदसमुद्र पुष्करवरद्वीपसे घिरा है । पुष्करार्द्ध मानुषोत्तरपर्वत से घिरा है । और पुष्करवर द्वीप पुष्करवरसमुद्र से घिरा है । इसी प्रकार स्वयंभूरमण पर्यन्त द्वीप समुद्र पूर्व २ पर २ से घिरे हैं ।
वलयाकृतयः । सर्वे च ते वलयाकृतयः सह मानुषोत्तरणेति ॥
‘वलयाकृतयः’ इसका यह अभिप्राय है, कि सब द्वीप समुद्र मानुषोत्तरपर्वत सहित वलय आकार हैं ॥ ८ ॥
तन्मध्ये मेरुनाभिर्वृत्तो योजनशतसहस्रविकम्भो जम्बूद्वीपः ॥ ९ ॥
सूत्रार्थः:- उन द्वीपसमुद्रोंके मध्य में मेरुपर्वत ही है नाभि जिसकी ऐसा, तथा वृत्ताकार एकलक्ष योजन विष्कंभवाला जम्बूद्वीप है ।
भाष्य - तेषां द्वीपसमुद्राणां मध्ये तन्मध्ये || मेरुनाभिः । मेरुरस्य नाभ्यामिति मेरुर्वास्य नाभिरिति मेरुनाभिः । मेरुरस्य मध्य इत्यर्थः ॥ सर्वद्वीपसमुद्राभ्यन्तरो वृत्तः कुलालचक्राकृतिर्योजनशतसहस्रविष्कम्भो जम्बूद्वीपः । वृत्तग्रहणं नियमार्थम् । लवणादयो वलयवृत्ता जम्बूद्वीपस्तु प्रतरवृत्त इति । यथा गम्येत वलयाकृतिभिश्चतुरस्रत्र्य त्रयोरपि परिक्षेपो विद्यते तथा च माभूदिति ॥
विशेषव्याख्या - पूर्वोक्त असंख्य द्वीप और समुद्रों के मध्य में मेरुपर्वतरूप नाभियुक्त, प्रतरवृत्त एकलाख योजन विष्कंभयुक्त जम्बूद्वीप है | वहां पर 'मेरुनाभि' इस पदसे मेरु जिसकी नाभिमें है, अथवा मेरु जिसकी नाभि है, यह आशय है । दोनों प्रकारके समास से मेरु जिसके मध्य में है, यह अभिप्राय है । सब द्वीप और समुद्रोंके आभ्यन्तर वृत्ताकार अर्थात् कुलालके चक्रसदृश आकारवान् शतसहस्र ( लाख ) योजन विष्कंभ सहित जम्बूद्वीप है । यहां पर वृत्त कहना इस नियम के अर्थ है कि, लवणसे आदि लेके द्वीप समुद्र वलयाकार वृत्त हैं । और जम्बूद्वीप प्रतरवृत्त है । यह कथन इसलिये है कि, कदाचित् ऐसा ज्ञान न हो जावे कि वलयाकार पदार्थोंको चतुष्कोण और त्रिकोणों का भी परिवेष्टन ( घिराव ) होता है, जो कि न होना चाहिये ।
मेरुरपि काञ्चनस्थालनाभिरिव वृत्तो योजन सहस्रमधोधरणितलमवगाढो नवनवत्यु
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