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सभाप्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । च्छ्रितो दशाधो विस्तृतः सहस्रमुपरीति । त्रिकाण्डस्त्रिलोकप्रविभक्तमूर्तिश्चतुर्भिर्वनैर्भद्रशालनन्दनसौमनसपाण्डकैः परिवृत्तः । तत्र शुद्धपृथिव्युपलवज्रशर्कराबहुलं योजनसहस्रमेकं प्रथमं काण्डम् । द्वितीयं त्रिषष्टिसहस्राणि रजतजातरूपाङ्कस्फटिकबहुलम् । तृतीयं षट्त्रिंशत्सहस्राणि जम्बूनदबहुलम् । वैडूर्यबहुला चास्य चूलिका चत्वारिंशद्योजनान्युच्छ्रायेण मूले द्वादशविष्कम्भेण मध्येऽष्टावुपरि चत्वारीति । मूले वलयपरिक्षेपि भद्रशालवनम् । भद्रशालवनात्पञ्च योजनशतान्यारुह्य तावत्प्रतिक्रान्तिविस्तृत नन्दनम् । ततो ऽर्धत्रिषष्टिसहस्राण्यारुह्य पञ्चयोजनशतप्रतिक्रान्तिविस्तृतमेव सौमनसम् । ततोऽपि षत्रिंशत्सहस्राण्यारुह्य चतुर्नवतिचतुःशतप्रतिक्रान्तिविस्तृतं पाण्डकवनमिति । नन्दनसौमनसाभ्यामेकादशैकादशसहस्राण्यारुह्य प्रदेशपरिहाणिर्विष्कम्भस्येति ॥
मेरु भी काञ्चन ( सुवर्ण) के थारकी नाभिके समान वृत्ताकार सहस्र योजन पृथिवीमें प्रविष्ट, निन्नानवे सहस्र योजन उंचा, दश सहस्र योजन अधोभागमें विस्तृत, और सहस्र योजन ऊपर विस्तारयुक्त है। तथा तीन कांड सहित, तीनों लोकोंको प्रविभक्तमूर्ति अर्थात् विभाग करनेवाला और भद्रशाल, नन्दन, सौमनस, तथा पाण्डुक नामक चार वनोंसे घिरा है । उन तीनों कांडो (विभागों) मेंसे प्रथमकांड शुद्धपृथिवी, पाषाण (बहुमूल्य पाषाण), वज्र (हीरकादि) तथा शर्करा (वालू ) से प्रायः पूर्ण और एक सहस्र योजन प्रमाण सहित है । और द्वितीयकांड प्रायः रौप्य, सुवर्ण तथा स्फटिक मणिसे पूर्ण त्रेसठसहस्र योजन प्रमाण सहित है। तथा तृतीयकांड प्रायः जम्बूनदनामक उत्तम सुवर्णसे पूर्ण और छत्तीससहस्र योजन प्रमाण सहित है । और चवालीस योजन ऊंची, मूलभागमें बारह योजन विस्तारसहित, मध्यभागमें आठ और ऊपर चार योजन विष्कंभसहित इस मेरुकी चूलिका है । और मूल भागमें भद्रशालवन उसको वेष्टित किये (घेरे) है । और भद्रशालसे पांचसौ योजन और चढके वहां तकप्रतिक्रान्ति (प्रतिव्याप्ति वा प्रतिबिम्ब) से विस्तृत नन्दनवन है । और उसके पश्चात् साढे त्रेसठ सहस्र योजन आगे चढके पांच ही सौ योजन प्रतिक्रान्तिसे विस्तृत सौमनस वन है। और उस सौमनससे भी छत्तीस सहस्र योजन और आगे चढके चारसौ चौरानवे योजन पर्यन्त प्रतिक्रान्तिसे विस्तृत पाण्डकवन है । और नन्दन तथा सौमनस इन दोनोंसे ग्यारह २ सहस्र योजन चढके विष्कंभके प्रमाणकी परिहाणि अर्थात् न्यूनता है ॥९॥
१ यह मेरु सर्वत्र सम प्रमाणसे नहीं है, किन्तु प्रदेशप्रमाणकी परिहाणिसे न्यून होता गया हैं; इस विषयको दर्शाते हैं x x x x x x नन्दनवनसे ऊपर और सौमनसके नीचे मध्यमें ग्यारह २ सहस्र योजन चढके एक सहस्र योजन विष्कंभकी न्यूनता होती जाती है । और सौमनसके ऊपर तथा नन्दनके नीचे इन आचार्य(सूरि )ने नहीं कहीं। x x x और यह परिहाणि (न्यूनता ) जो आचार्यने कही है, वह गणितके अनुसार किञ्चित भी विश्वासके योग्य नहीं है । क्योंकि सौमनस वनमें अभ्यन्तरका विष्कंभ तीन सहस्र दो सौ बहत्तर योजन तथा ग्यारहके आठ भाग है। ३२७२ । और बाह्यविष्कंभ चार हजार दो सौ बहत्तर योजन तथा ग्यारहके आठ भाग है । ४२७२ । और आचार्य कथित परिहाणिसे
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